शनिवार, 19 सितंबर 2009

दिल्ली का फ़िल्मी इतिहास-भाग 2

गत से आगे........




महिलाओं का सिनेमाहाल में आना ज्यादा दिनों तक नही रहा। अंग्रेजी फिल्मो में दिखाया जाने वाला चुम्बन दृश्यों से उन्हें परहेज होने लगा और जल्दी ही उन्होंने यहाँ से कदम मोड़ लिए। जब बाद में भारत में फिल्मो का निर्माण शुरू हुआ और उनकी लोकप्रियता बढ़ी तो जामा मस्जिद के पास बने संगम थिएटर को १९३० में सिनेमाहाल में परिवर्तन कर दिया गया। साथ ही इसका नाम बदल कर जगत कर दिया गया। जगत टॉकीज नाम से यह सिनेमाहाल अभी भी काम कर रहा है। १९०४ के आस-पास ही न्यू रोयल सिनेमा की शुरुआत हुयी थी। जिस जगह पर आज मोटी सिनेमा बना हुआ है उसकी मालकिन कभी बहादुर शाह जफ़र की बहन बेगम समरू हुआ करती थी। लाला जगतनारायण ने ज्यादा-से-ज्यादा दर्शक जुटाने के लिए फिल्मो का प्रचार करना शुरू कर दिया। लालजी ने एक नायब तरीका निकाला था। दिखायी जाने वाली के चित्रों से सजी ट्राली शहर के विभिन्न इलाकों में घुमाई हटी थी। ट्राली के साथ भोंपू लिए हुए जोकरनुमा एक व्यक्ति होता था जो साथ-साथ फ़िल्म के समय, कलाकार आदि के बारे में जानकारी देता था। उस जोकर को 'जमूरा' कहा जाता था। और भोंपू भी बिजली से चलने वाली नही होती थी बल्कि 'जमूरा' को उसमे बोलना पड़ता था। दिल्ली सिनेमा के इतिहास में एक और रोचक वाकया है। उस समय अधिकतर फिल्मो के टाइटल एक या दो शब्दों के होते थे, फ़िर भी दर्शक उन्हें ठीक से पढ़ नही पाता था क्यूंकि तब पढ़े-लिखे की संख्या बहुत कम थी। इसके लिए सिनेमाघर की ओर से ऐसे कर्मचारी की नियुक्ति की जाती थी जो न पढ़ पाने वालो को टाइटल पढ़ कर सुनाता था। इन लोंगो को 'बताने -वाला' कहा जाता था।



जारी.....

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