गुरुवार, 10 सितंबर 2009

दिल्ली में सिनेमा का इतिहास - भाग 1

यदि आप दिल्ली में रहते है और अपने परिवार के साथ फ़िल्म देखने का मानबना रहे है तो निश्चित ही आपके दिमाग में सिनेमाघर का नही बल्कि मल्टीप्लेक्सों के नाम दिमाग में आ रहे होंगे। साकेत और नारायणा के पीवीआर, नेहरू पलैस और पटेल नगर वाला सत्यम या नॉएडा का वेब। है न???? आप ही नही फ़िल्म के सारे शौकीन यही जाते है पुरा मजा लेने के लिए। जगत, रिट्ज़, नोवेल्टी, शीला और बत्रा के बारे में कौन सोचता है? यहाँ भी लोग फिल्मे देखने जाते है लेकिन वो लोग जो अपने अपने बजट को लेकर ज्यादा मजबूर होते है। आज के युवा वर्ग में तो जैसे घृणा है जैसे इन सिनेमाघरों के लिए। मुझे याद है एक बार मै नेहरू प्लेस स्थित पारस सिनेमा से "हैरी पॉटर" देख कर आया था, तो जामिया मिलिया इस्लामिया के कैम्पस मस्तिबाजी में मेरा मजाक उड़ाया गया था।
संक्षेप में, कहें तो यह सिनेमाघर उन लोंगो से कट सा गया है, जो अपने आप को आज के सभ्य सोसाइटी के रहने वाले कहते है। जबकि हकीकत यह है की इन्ही सिनेमाघरों ने दिल्ली में फिल्मो को लाया। भारतीय विद्या भवन के लाइब्रेरी में रखे सिनेमा के इतिहास वाली पुस्तकों से मुझे पता चला की कैसे इन सिनेमाघरों ने दिल्लीवालों को चलचित्र से रूबरू कराया।
कहा जाता है की १९१३ या १९१४ में माडर्न थिएटर ने दिल्ली में पहला सिनेमाघर चालू किया, जिसका नाम था 'एलिफिंस्टन'। कुछ जानकारों का मानना है की फतेहपुरी में स्थित 'कोरोनेशन' दिल्ली का पहला सिनेमाघर था। बाद में यह जल गया था और अब उसी स्थान पर 'कोरोनेशन' होटल है। इस समय मूक फिल्मो का दौर था, इसलिए उस समय दिल्ली में केवल अमेरिका और ब्रिटेन में बनाई गयी फिल्मे ही दिखाए जाते थे। अधिकतर दर्शक अंग्रेज फौजी या गोरे ही होते थे। बाद में धीरे-धीरे अंग्रेजों के देखा देखी दिल्लीवालों को इसका शौक चढ़ने लगा। इसके लिए सेठ जगतनारायण ने रास्ता असं किया । उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी से 'एलिफिंस्टन' सिनेमा खरीद लिया और उसका नया नाम 'नोवेल्टी' रखा। यह सिनेमा हॉल आज भी काम कर रहा है जिसका संचालन अब उनके बेटे सेठ विजयनारायण द्वारा किया जा रहा है।
सेठ जगतनारायण ने बाद में १९२८ के आस पास वितरण का भी अपना काम सुरु किया। धीरे-धीरे वे तीन सिनेमाहाल के मालिक बन गए। वे सिनेमाघर थे- जगत, नोवेल्टी और रिट्ज़। इन तीन सिनेमाघरों में दिल्ली के अंग्रेजों के अधीन होने के कारण सिर्फ़ अंग्रेजी फिल्मे ही दिखायी जाती थी। उस समय सिनेमाहाल में प्रवेश की सबसे कम टिकेट दर ४ आने थी और सबसे ज्यादा १ रूपया। फ़िल्म देखने आने वालो में पुरूष ही होते थे, लेकिन जब हिंदू धर्मों पर आधारित पौराणिक फिल्मे बनने लगी तो महिलाओं ने भी फ़िल्म देखने के लिए आना शुरू किया, जिसे देखते हुए प्रबंधन को महिलाओं के लिए अलग बैठने का व्यबस्था करना पड़ा।

जारी........

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