शुक्रवार, 18 मार्च 2011

आज का मीडियावाद

कुछ दिन पहले फेसबुक पर राहुल (working with Aaj-Tak, TV Today Network, as.......don't know the designation) से "भारतीय मीडिया" के ऊपर चर्चा शुरू हुआ जो अगले तीन दिन में लगभग एक लड़ाई का रूप ले लिया. 'आज तक' वालों में एक खास बात यह है की जब ये बोलते हैं तो "देश का सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल" का जोश लबालब होता है. खैर एक 'विडियो एडिटर' और  "देश का सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल" के पत्रकार के बिच की शाब्दिक लड़ाई बेनतीजा रही.
सब कुछ फेसबुक के comments  में नहीं कह सका इसलिए लिख रहा हूँ.

मैं यहाँ आरुषी वाले घटना को लेकर दो बातें लिखता हूँ.- १. आरुषी और उसके माता-पिता यदि बिहार के किसी दूरदराज जिले के रहने वाले होते तो क्या यह केस इस तरह से हाइप होता? लेकिन चाहे भी हो मीडिया के प्रयास ने उत्तरप्रदेश के एक चौकीदार से लेकर देश के सर्वोच्च जाँच एजेंसी तक को सोचने पर मजबूर किया है.
 अब मैं सिर्फ पंक्तियों के क्रमों को पलट देता हूँ. -२. मीडिया के प्रयास ने उत्तरप्रदेश के एक चौकीदार से लेकर सर्वोच्च जाँच एजेंसी तक को सोचने पर मजबूर कर दिया है लेकिन क्या यह तब भी होता यदि आरुषी और उसके माता-पिता बिहार के किसी दूरदराज जिले के रहने वाले होते???

आप मीडिया वाले किस कथन के साथ हैं? शायद व्यावहारिक तौर पर पहली कथन के साथ. आप वास्तव में खुद को व्यावहारिक और भारतीय मीडिया को व्यावसायिक बनाने में जुट गयें.  इस कोशिश में आपने इतनी तेज दौड़ लगाई की आप व्यवसायिक ही नहीं 'अति-व्यवसायिक' हो गयें. और अब जो नए generation का खेप आ रहा है वो 'पत्रकार' कम और 'मीडियाकर्मी' ज्यादा है. 'खबर' का मतलब समझ में आये या ना आये, TAM का आंकड़ा कंठस्थ याद हो जाता है, और ये घुट्टी उन्हें उन्ही संस्थानों में ही पिलाई जाती है जहाँ से वो निकलते हैं.

'अति-व्यवसायिक' पर आता हूँ.  भारतीय मीडिया बहुत जल्दी में है, और आप मीडिया वाले हड़बड़ी में. आप हड़बड़ी में इसलिए हैं क्यूंकि आप 'डेड-लाइन' में जीते हैं. पहले आप कार्पोरेट के लिए काम करते थे अब खुद 'कार्पोरेट' हो गए हैं. आपको खबर से ज्यादा ध्यान TAM के आंकड़ों पर है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया में क्रांति लाने वाले रजत शर्मा भी अपनी अदालत में राखी सावंत को बुलाकर हँस-ठीठोली करते रहते हैं. इंडिया टीवी के तो जैसे पर निकल आये हैं. वह आजकल 'बिग टॉस' नाम से वर्ल्ड कप पर सबसे बड़ा रियलिटी शो प्रसारित कर रहा है लेकिन उससे कोई पूछनेवाला नहीं है कि न्यूज चैनल पर रियलिटी शो प्रसारित करने की अनुमति किसने दी है सरकार का हाथ भी आप मीडिया वालों के कंधे पर है. प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से, क्या फर्क पड़ता है.  सरकारी आलम तो यह है की इस देश में सरकारी मंचों से टेलीविजन के किसी भी कार्यक्रम पर नकेल तब तक नहीं कसी जाती है जब तक कि कोई हादसा न हो जाए या फिर जनहित में किसी की ओर से मुकदमा न दायर कर दिए जाएं। इस हिसाब से इंडिया टीवी के उपर किसी तरह की कार्यवाई हो इसके लिए हमें किसी बड़े हादसे का इंतजार करना होगा। इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को 'बिग-बॉस' के तर्ज पर एक घर में बंद कर के रखा गया है. उन्हें इस घर में एक डरावनी रास्ते से होकर गुजरना पड़ा. (हालाँकि उस  डरावनी रास्ते का फूटेज गाजिअबाद के शिप्रा माल स्थित 'भूत-बंगला' से लिया गया है और एडिटिंग टेबल पर उसे उस घर का रास्ता बना दिया गया.) आजकल उस बंद घर में प्रतियोगिओं के बिच झगड़ा होता है जिसे इंडिया टीवी ब्रेकिंग न्यूज़ के पट्टी पर चलाता है, जैसे-"राखी-वीणा आज सहवाग के लिए लड़ी". अन्दर बंद प्रतियोगी अपने पसंद की खिलाड़ी पर सट्ठा लगाते हैं, और बाहर दर्शक sms करके उन प्रतिओगियों पर. ऐसा लगता है जैसे इस शो का प्रोडूसर पहले UTV Bindass में काम करता था.

राहुल ने एक कमेन्ट में लिखा की ये इंडिया है. यहाँ खबर से ज्यादा लोग मसाला पसंद करते हैं.  चैनल हेड से लेकर इन्टर्न करने वाले तक के जुबान पे यही डायलौग चिपका हुआ है. TAM के रिपोर्ट आते हीं आज-तक और इंडिया-टीवी वाले उछल पड़ते हैं. 5 टॉप के कार्यक्रमों में से ४ उन्ही के होते हैं. ये TRP नाम की चीज कितना सच है और कितना धोखा ये सभी न्यूज़ चैनलों के हेड अच्छी तरह समझते और जानते है, ये अलग बात है की वो उसे पकड़ कर झुन्झुन्ना की तरह बजाने पर मजबूर हैं. TRP की इस नौटंकी पर थोड़ा रिसर्च मैंने भी किया. वर्णन करता हूँ.-

भारत में लगभग 50 करोड़ टीवी दर्शक हैं, जिनके आकलन के लिए आपके TAM के पास सिर्फ 8000 पीपुल मीटर है. आपके इसी TAM के मुताबिक, देश में कुल २२.३ करोड़ घर हैं जिनमें से कुल १३.८ करोड़ घरों में टी.वी है. इनमें से १०.३ करोड़ टी.वी घरों में केबल और सेटेलाईट उपलब्ध है जबकि दो करोड़ टी.वी घरों में डिजिटल टी.वी उपलब्ध है.
इसी तरह, देश में कुल टी.वी घरों में ६.४ करोड़ शहरी इलाकों में और सात करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों हैं. लेकिन इससे अधिक हैरानी की बात क्या होगी कि जिस टी.वी रेटिंग के आधार पर चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता का आकलन किया जाता है, उसके ८००० पीपुल मीटरों में एक भी मीटर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है. यही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर, असम को छोड़कर पूरे उत्तर पूर्व में कोई पीपुल मीटर नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन क्षेत्रों के दर्शकों की पसंद कोई मायने नहीं रखती है. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश पीपुल मीटर देश के आठ बड़े महानगरों तक सीमित हैं जहां कुल २६९० मीटर लगे हुए हैं. इस तरह, सिर्फ आठ महानगरों में कुल पीपुल मीटर्स के ३३.६ प्रतिशत लगे हुए हैं. इसमें भी दिल्ली और मुंबई में कुल टी.वी मीटर्स के १३.५ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं जबकि इन दोनों शहरों में देश की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी रहती है. इसी तरह, देश के पश्चिमी हिस्सों खासकर गुजरात (अहमदाबाद सहित) और महाराष्ट्र (मुंबई छोड़कर) में कुल पीपुल मीटर्स के १९ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं.
टी.वी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में जहां अकेले पुणे में १८० पीपुल मीटर्स लगे हुए हैं, वहीँ पूरे बिहार में सिर्फ १५० मीटर्स लगे हैं. इसी तरह, दिल्ली में कुल ५४० पीपुल मीटर्स लगे हैं, वहीँ पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल ४५० मीटर्स लगे हैं.
और भी ज्यादा विस्तृत आंकड़ो के लिए गूगल पर सर्च कर लीजिये.

  एक बार मीडिया वाला न बनकर आप विश्लेषण करेगें तो पता चल जायेगा की आप जिस आधार पर खुद को नंबर-१ बनकर ढोल बजाते हैं उसे मुट्ठी भर लोंगों ने नंबर-१ बनाया है. हाँ, यही मुट्ठी भर लोग हैं जो सर्फ़, साबुन और fair & Lovely ज्यादा खरीदते हैं. 'सहारा समय' जैसा न्यूज़ चैनल उत्तरप्रदेश/उत्तराखंड में प्रथम स्थान हासिल करके भी ओवरऑल TRP रेटिंग में ५-६ स्थान पर हीं रहता है क्यूंकि उसे देखने वाले वो हैं जिनके आस-पास पीपुल मीटर बहुत कम लगा हुआ है.
   इसलिए आप यह कह सकते हैं हमारे फलाने शो को खूब रेटिंग मिली, फलाने टाइप के शो ने अच्छा बिजनेस किया लेकिन यह नहीं कह सकते की ये इंडिया है यहाँ खबर से ज्यादा लोग मसाला पसंद करते हैं.
आप तो कुछ भी बोलेंगे हीं. भारत के 'महामहिम मीडल क्लास लोग' आपके साथ जो हैं. यही 'महामहिम मीडल क्लास लोग' तो आज कल 'बाजार' बना हुआ है. इनको कुछ भी बेच लो खरीद लेंगे. गली के धुल से लेकर इमोशन तक, सब कुछ. आप मीडिया वाले पीछे क्यूँ रहे. बात पेट का है. अगर जिन्दा रहना है तो न्यूज़ रूम में भूत बुलाओ, फिर भूत भगाने के लिए ' अग्रिम पेड बाबा'.

मेरे एक विडियो एडिटर दोस्त को एक न्यूज़ चैनल के इंटरव्यू में पूछा गया था की युट्यूब से विडियो डाउनलोड करने आता है की नहीं? मैंने १६ दिन सुदर्शन न्यूज़ में ट्रेनी एडिटर के तौर पर काम किया है. वहाँ गुजरात के फर्जी मुठभेड़ वाले कांड पर पॅकेज बनाते समय मुझसे कहा गया की यूट्यूब से सिक्ख विरोधी दंगों के फूटेज निकाल कर उस पॅकेज में लगाओ. कहानी को horrible बनाने के लिए और किसी खबर को 'किसी खास पार्टी' के लिए इस्तेमाल करने में मीडिया पारंगत हो गया है. मीडिया के इस बदलते छबि के खिलाफ जो लोग लिखते हैं या बोलते हैं उन्हें चैनलों के 'TRP मशीन' टाइप के मीडियाकर्मी सलाह देते हैं की ऐसे इमोशनल मत होइए जबकि टॉप ५ में स्थान हासिल करने वाले कार्यक्रमों में से २ या ३ कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिससे दर्शकों को इमोशनली टीवी के आगे बैठने पर मजबूर किया जाता है.

एक और बचकाना सा डायलौग है आप मीडिया वालों का. "रिमोट आपके हाथ में है. जो चाहे देखिये. कोई कार्यक्रम पसंद नहीं है तो मत देखिये".  आप बता सकते हैं की पहले इंडिया टीवी ने भूत-प्रेत, टोना-टोटका दिखाना शुरू किया या दर्शकों ने देखना??? या दर्शकों का किसी association ने इसकी डिमांड की थी? 'पसंद नहीं है तो मत देखिये' वाला डायलौग से सिर्फ उल्लू सीधा किया जा सकता है. यह 'द ग्रेट मिडल क्लास' की १ अरब २० करोड़ का भारत है. टीवी, मोबाइल लोंगो के रग-रग में घूंसा हुआ है. क्या दिखाना है, इन लोंगो की मानसिकता को किस ओर लेकर जाना है, ये कही ना कही टीवी कार्यक्रमों बनाने वालों के ऊपर भी निर्भर है. ये आपकी खुसकिस्मती है की इस १ अरब २० करोड़ लोंगो में से वे लोग भी हैं जो 'कमिश्नर के कुत्ते खोने' , 'शमशान पर चमत्कार' जैसे कार्यक्रमों को अपने रिमोट से हटा नहीं पाते. यहीं उनकी मानसिकता है जिसे आप धीरे-धीरे upgrade कर रहे हैं और बाद में TRP  में नंबर-१ का डंका बजा लेते हैं. TRP के आंकड़ो के अलावा बहुत से और भी आंकड़े और तथ्य हैं.  नंबर-१ होने को सेलेब्रेट करते रहिये लेकिन साथ-साथ उन तथ्यों को भी समझिये. यह सलाह नहीं है . सलाह देने के लिए बहुत छोटा हूँ.

गलत-सलत हिंदी के लिए माफ़ी चाहता हूँ. साधारण सा विडियो एडिटर हूँ, पत्रकार नहीं. राहुल जैसे दोस्त कभी-कभी मजाक में छेड़ देते हैं तब मेरे अन्दर भी एक पत्रकार का भूत घूँस जाता है. वैसे तो अपने देश की आधी आबादी पैदाइशी पत्रकार है और बाकि के आधी नेता.

एक बात और, अपने देश में 'पत्रकार' की महानता को दिखाते हुए एक और कॉलम लिखा है. शीर्षक है-"चले लल्लन पत्रकार बनने" . शीर्षक पर मत जाइएगा. मैंने आप पत्रकार लोंगो का दिल खोलकर तारीफ किया है. वो भी बिलकुल फ्री. जल्दी ही टाइप करके भेजूंगा.

धन्यबाद!!!!! 

बुधवार, 5 जनवरी 2011

स्थानीय फिल्मों के निर्माण का इतिहास और भविष्य

पिछले दिनों एक लघु फीचर फिल्म "निजात" की एडिटिंग में व्यस्त था. सहरसा (बिहार) के रहने वाले एक नृत्य शिक्षक शशिकांत झा ने फिल्म को बनाया है. लगभग ७ साल पहले वे उड़ीसा के राउरकेला के आस-पास सरकारी शिक्षक के रूप में नौकरी पर थें. वहीँ के ग्रामीण जनजातियों के अंतर्द्वंध को उन्होंने अपनी फिल्म में दिखाया है. स्थानीय चुने हुए कलाकारों को लेकर उन्होंने अच्छा फिल्मांकन किया है. मुझे बहुत खुशी हुई इस फिल्म को अंतिम रूप देकर.
खैर, झा सर कह रहे थे की अच्छा होता की इस फिल्म को एक और वर्जन देता. उनका इशारा "निजात" को उड़ीसा के जनजातियों की भाषा में भी पिरोने का था. कह रहे थे की स्क्रीनिंग के लिए अच्छा खासा निमंत्रण मिल जाता वहां से. लेकिन यह संभव नहीं था. कितना मुश्किल से वो इसे हिंदी में ही बना पायें हैं. हमारी बीच की इस discussion से मेरे अन्दर यह जिज्ञासा हुई की स्थानीय भाषाओं में बने फिल्मों का इतिहास क्या रहा है और इसका भविष्य क्या है. इसके बहुत रोचक तथ्य मिलें मुझे.

यहाँ लिखने के लिए मैं अपनी हीं स्थानीय भाषा की फिल्मों के इतिहास को खंगालता हूँ. मेरा जन्म स्थान (नालंदा, बिहार) की भाषा मगही है. बिहार के पटना, नालंदा, नवादा, और शेखपुरा जिलों के अलावा यह भाषा कहीं भी प्रचलन में नहीं है. लेकिन जानकर आश्चर्य हुआ की मगही में भी कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है और अभी भी कुछ  मगहिया प्रेमी इस दिशा में काम कर रहे हैं. उन्ही लोंगो में से एक है पटना के कौशल किशोर (www.magahdesh.blogspot.com ) जिनकी भी इच्छा है मगहिया में एक फीचर फिल्म बनाने का.  खैर, मगहिया फिल्म के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी फिल्म "भैया" का निर्माण. "भैया" का लेखन और निर्देशन फनी मजुमदार ने किया था. किसे पता होगा की मगही भाषा के इस फिल्म में तब की प्रसिद्व आइटम डांसर हेलेन ने आइटम डांस और मशहूर अदाकारा पद्मा खन्ना ने अभिनय किया था. "भैया" १९६५ में बनी थी और तब इसे नालंदा, पटना के आस-पास के इलाकों के खपरैल सिनेमाघरों में रिलीज़ किया गया था. इसका निर्माण नालंदा के हीं एक फिल्म संघ 'नालंदा चित्र प्रतिष्ठान' ने किया था. निर्देशक फनी मजुमदार के बारे में भी एक रोचक तथ्य यह है की वह भारत के अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने ९ भाषाओँ में फिल्में बनाई है.

"भैया" की कहानी और चित्रांकन आज की फूहड़पन से लबालब भोजपुरी फिल्मों की तरह नहीं था. फिल्म देखकर तब के फिल्म-निर्माण शैली की परपक्वता का अंदाजा होता है. तब स्थानीय मगहिया दर्शक फिल्में आइटम नम्बर के लटके-झटके देखने नहीं बल्कि घर-बार की कहानियां देखने जाते थे. कुछ वाक्यों में "भैया" के कहानी भी बताना चाहूँगा-

एक गरीब इंसान परमानन्द अपनी  विधवा सौतेली माँ, सौतेला  भाई मुरली और सौतेली बहन कमला के साथ रहता है.  परमानन्द अपनी गाँव की हीं बिंदु से प्यार करता है और शादी करना चाहता है. मुरली जब बम्बई से पढाई करके लौटता है तब उसे भी बिंदु से प्यार हो जाता है. परमानन्द मुरली के खुशी के लिए उसकी शादी बिंदु से करवा देता है लेकिन मुरली शादी के बाद गाँव की एक दूसरी लड़की चन्द्रा पर डोरे डालने लगता है. परमानन्द अपनी प्यार बिंदु के खुशी के लिए मुरली को समझाता है लेकिन मुरली उल्टा परमानन्द से झगडा कर कोर्ट में अपने पिता की सारी सम्पति पर पूरा हक के लिए अर्जी दे देता है.
परमानन्द का अपने भाई के लिए प्यार की कुर्बानी, फिर अपने प्यार के खातिर अपने अधिकारों की कुर्बानी..... रिश्तों का ताना-बाना.. पूरी फिल्म को जबरदस्त परिपक्व बनाता है. यह कहानी उस फिल्म की है जो मगहिया फ़िल्मी इतिहास की सबसे पहली कड़ी है. और शायद आखिरी भी. क्यूंकि "भैया" के बाद मगही भाषा में एक पूरी फीचर फिल्म के निर्माण न के बराबर हुए.
फिल्म निर्माण में अब पैसावाद आ गया है. फिल्मों को तो अब वर्ल्ड-वाइड रिलीज़ किया जाता है तभी तो आज के लटके झटके वाले भोजपुरी फिल्मों को भी भारत के साथ साथ, अमेरिका, नीदरलैंड, साउथ अफ्रीका में भी रिलीज़ किया जाता है. एक स्थानीय भाषा में फिल्म बनाना तो अब बहुत बड़ा जोखिम है. यह बात सभी प्रकार के फिल्मकार समझते है. शशिकांत झा जैसे बहुत छोटे स्तर के फिल्मकार भी. वह भी जानते है की आर्ट फिल्मों का भी अब कैसे commercialise किया जाता है. स्थानीय भाषा में फिल्में बनाना तब एक जोखिम भरा काम नहीं होगा जब कला फिल्मों को सिर्फ 'कला' और 'प्रदर्शन' के लिए बनाया जायेगा और निश्चित हीं जिसका उद्देश्य पैसा बनाना नहीं होगा. और इसकी एक बड़ी जिम्मेदारी S.R.F.T.I और F.T.I.I जैसे संस्थानों की है जो अपने यहाँ हाँथ के उँगलियों की संख्या जीतनी (S.R.F.T.I -१० seats & F.T.I.I -१२ seats ) विद्यार्थियों को प्रवेश देते हैं.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

वाह सत्यजीत दा....

आज अचानक मेरा S.R.F.T.I में प्रवेश लेने की कोशिशों को और हौसला मिल गया. दरअसल आजकल मैं यहाँ प्रवेश लेने के लिए पढ़ रहा हूँ..  ज्यादातर पढाई तो ऑफिस में हीं  होता है..syllabus के प्रश्नों के उत्तर खोजने में. खोजते-खोजते सत्यजीत रे के बारे में बहुत रोचक जानकारियाँ मिली. पता चला की कई चीजों में वो अकेले हैं बस.

        यों तो सत्यजीत रे ने कुल 29 फिल्में और 10 डाक्यूमेंट्री बनाई थीं,कहते हैं कि वे अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली के बाद कुछ और न बनाते तो भी विश्व सिनेमा मे अमर हो जाते। उन्होंने एक विज्ञापन एजेंसी के लिए क्रिएटिव विजुअलाइजर,ग्राफिक डिजाइनर आदि के रूप मे 12 वर्षों से भी अधिक समय तक काम किया था। संभवतः,वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने फिल्म निर्माण की हर विधा में योगदान किया है। इटली की फिल्म 'द बाइसाइकिल' थीफ से बेहद प्रभावित थे और कहते थे कि फिल्मों में उनके होने की वजह यही फिल्म है। वे एकमात्र भारतीय हैं जिन्हें ऑस्कर अकादमी ने लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार दिया है। बाद मे भारत सरकार ने भी उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया। उन्हीं के  नाम पर कोलकाता मे सत्यजीत रे फ़िल्म एवं टेलीवीजन संस्थान (एस.आर.एफ़.टी.आई) है... मेरे सपनों  का एक स्कूल जहाँ मै फिल्म-मेकिंग सीखना चाहता हूँ.

        उनका एक साक्षात्कार भी मिला जिसमे वह ह रहे हैं कि उन्होंने पश्चिमी दर्शकों के लिए फिल्में नहीं बनाईं. खुद ही पढ़िए मै उसका चुनिन्दा हिस्सा यहाँ लिखता हूँ-

" फिल्म पाथेर पांचाली बनाते समय ही मैंने अपने देश के देहाती समाज से परिचय पाया। मैं शहरों में जन्मा और पला-बढ़ा था। फिल्मांकन के लिए देहाती इलाकों में घूमते और लोगों से बातें करते हुए मैंने इसे समझना शुरू किया। यह सोचना गलत है कि केवल देहातों में जन्मे लोग ही उनके बारे में फिल्में बना सकते हैं। एक बाहरी नजरिया भी काम करता है।

मुझ पर विभूतिभूषण बंदोपाध्याय का गहरा प्रभाव पड़ा। मैंने उनकी अपुत्रयी पर फिल्में बनाई हैं। उनकी पाथेर पांचाली पढ़ते हुए ही मुझे देहाती जीवन के बारे में पता चला। मैंने उनसे और उनके दृष्टिकोण से एक खास किस्म का जुड़ाव महसूस किया। यही वजह थी कि मैं सबसे पहले पाथेर पांचाली ही बनाना चाहता था। इस किताब ने मुझे छू लिया था।

मुझे टैगोर भी काफी पसंद हैं। लेकिन उनका काम देहाती नहीं। हमारा सांस्कृतिक ढांचा पूर्व और पश्चिम के मेलजोल से तैयार होता है। शहर में शिक्षित और अंग्रेजी साहित्य के क्लासिकों से परिचित हर भारतीय पर यह बात लागू होगी। सच्चाई तो यह है कि पश्चिम का हमारा बोध उन लोगों के हमारी संस्कृति के बोध से गहरा है।

एक तकनीकी कला माध्यम के रूप में सिनेमा का विकास पश्चिम में हुआ। दरअसल किसी भी तरह की समय सीमा वाली कला की अवधारणा ही पश्चिमी है। इसलिए यदि हम पश्चिम और उसके कलारूपों से परिचित हैं तो सिनेमा को एक माध्यम के रूप में अच्छी तरह समझ सकते हैं। कोई बंगाली लोक कलाकार शायद इसे न समझ पाए। इसके बावजूद फिल्में बनाते समय मैं पश्चिमी दर्शकों नहीं, अपने बंगाली दर्शकों के बारे में ही सोचता हूं।"
अच्छा लगता है न पढ़कर?  एक विज्ञापन कंपनी में ग्राफिक-स्राफिक करने वाला ओपरेटर टाइप का आदमी भारत का अकेला है जिसे दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म प्रतिष्ठा अवार्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए ऑस्कर मिला है. ....जो एक इतालवी फिल्म देखकर फिल्मे बनाने के लिए सनक जाता है. 
धन्यवाद् सत्यजीत दा... बढ़िया सिखाया आपने हमारे जैसे ओपरेटर टाइप के एक मामूली विडियो एडिटर को. कोशिश कर रहा हूँ की आपके स्कूल में आकर भी सीखूं. 


सोमवार, 14 जून 2010

सत्येन्द्र दादा जी के याद में...

वह पटना के नाला रोड पर स्थित अपनी दवाई के दुकान चलाते थे. कब से, यह मुझे याद नहीं. शायद मेरे पैदा होने के पहले से ही. उनकी दवाई कैसी क्वालिटी की होती थी यह तो वहाँ के मरीज ही जाने लेकिन वह खुद सभी मर्ज के दवा थे. किसी निराश इंसान से १० मिनट बैठ कर बात कर लें तो उसकी सारी परेशानी ख़त्म. तो थे न वह एक दवा? एक प्रकृति निर्मित दवा.
                     नाम- सत्येन्द्र गिरी, पिता-श्री नवलकिशोर गिरी, निवासी- पटना सिटी और उम्र-४८ साल. मेरे दादाजी के चचरे भाई होने के कारण मेरे भी दादाजी हुए. कुछ दिन पहले दिल के दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी. लोग कहते है सत्येन्द्र बाबु नहीं  रहे. मुझे ऐसा नहीं लगता. मै उन्हें अपने आस-पास महसूस करता हूँ. इसलिए नहीं की मुझे उनसे अपने दादाजी से ज्यादा लगाव था बल्कि इसलिए की उनकी सिखाये बहुत सी चीजें अभी भी मेरे साथ है. बहुत सी यादें जुड़ी है , मैं कुछेक याद करना चाहूँगा.

मै पांचवी क्लास में पढता था. स्कूल के लिए निकलते समय अपने बस्ता के साथ -साथ साइकिल का टायर भी लेकर चलता. मतलब अपनी गाड़ी के साथ. बस्ता कही झाड़ी में छुपाकर पुरे दिन-दोपहर लिख (खेतों में ट्रेक्टर चलने के बाद उसके चक्के से जो सड़क बना जाता है उसे हमारे यहाँ 'लिख' कहते है ) पर उस टायर  को डंडे से भगा-भगाकर चलाता. शाम को ४ बजे वापिस बस्ता लेकर घर. एक दिन मम्मी को पता चल गया तो मुझे मार पड़ी. सत्येन्द्र दादा पटना से आये हुए थे. १०-१५ दिन पर खेती-बारी का हाल-चाल जानने आ जाया करते थे. मै मार खाकर आंगन में मिट्टी के चूल्हे पर बैठा था.  दादाजी सारा हाल जानने के बाद हंसते हुए मुझे उठाकर बाहर ले गए.  इस बार वो अपनी नयी बुल्लेट मोटर साइकिल से आये थे. उन्होंने मुझे पुरे लिखों पर सैर करवाया. "यह देखो , यह है असली गाड़ी. जो तुमको बिठाकर चले. लेकिन तुम जो चलाते हो वो तो नकली है. उसे चलाने के लिए तुम्हे दौड़ना पड़ता है. अगर तुम रोज स्कूल जाओगे तो बड़े होकर नौकरी करोगे फिर तुम भी ऐसा ही बुल्लेट गाड़ी खरीद लेना." उन्होंने कहा. उस दिन से मेरे दिमाग में यह बात घर कर गया की मै रोज स्कूल जाऊंगा तो मेरे पास भी ऐसा एक फटफटिया मोटर साइकिल होगा.
  हम दोनों में एक बात सामान है. उन्होंने ४८ साल के अपनी जिंदगी में एक बीड़ा पान भी मुंह में नहीं डाला. अब तक तो मैंने भी नहीं, शायद उन्ही का असर है. मेरे घराने में रात के खाना के बाद भांग पीना तो जैसे रिवाज है. एक दिन खलिहान में उनके साथ लेटे लेटे मैंने पूछा,"आईं दादा तोरा भंगवा अच्छा न लग हो? (दादाजी आपको भांग अच्छा नहीं लगता क्या?) उन्होंने समझाया- अरे उससे पेट थोड़े भरता है. वो तो एक लत है, बहुत गन्दी लत. जब तुमको किसी चीज की लत लग जाएगी न तो फिर तुम उस लत के गुलाम हो जाओगे. फिर इंसान वही करता है जो उसे नहीं करना चाहिए.
              तब बात कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया था, लेकिन आज जब खुद को देखता हूँ बिलकुल नशामुक्त, पुरे घराना में सबसे अलग.. तब मुझे लगता है की मै उस दिन उनसे बहुत कुछ समझा था. मेरे गाँव में एक कहावत है "जतन के मधु में चुट्टी (चींटी)  ज्यादा लगता है". यह कहावत सत्येद्र दादाजी के ऊपर चरितार्थ हो गया. बहुत जतन से वे अपनी जिंदगी जी रहे थे लेकिन भगवान की उनपर टेढ़ी नजर थी. शायद हमसे ज्यादा उनकी जरुरत ऊपर वाले को था.
    दादाजी आप हमेशा मेरे साथ रहना..  .. मै आपके सिखाये रास्ते पर चलकर एक बेहतर इंसान बनना चाहता हूँ . इसके लिए मुझे आपकी जरुरत पड़ती रहेगी.
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रविवार, 13 जून 2010

गाँव के याद में,

                                               डुमरी  के  पीपल  तल  की  गलियां,
                                               जहाँ  हमने  देखि  है  खुद  को  बढ़ते  हुए,
                                               पग -पग  लेकर  पैर  को  मिट्टी से  धो  लेने  दो  
                                                यादें  कर  लेने  दो  ताज़ा ,
               इन  गलियों  में  कुछ  पल  जी  लेने  दो. 



                                                     जैसे  बतियाना  चाह  रही,
                                                     मुझसे  इनकी  दीवारें 
                                                     फुस्स -फुस्साकर, हलकी  धीमी  आवाज  में,
                                                     रुको  थोड़ा  गुफ्तगू  कर  लेने  दो

                                                                 इन  गलियों  में  कुछ  पल  जी  लेने  दो.





                                                      जलती -बुझती  सूरज  की  किरणें,
                                                      शीत  मौसम  में  भी  धुल  के  झोंके,
                                                      जैसे  माँग  रही  हो  मुझसे,
                                                      लम्बी  अनुपस्थिति  का  हिसाब,
                                                      माफ़ी  माँग  लेने  दो,
                                                     फिर  से  आने  का  पक्का  वादा  कर  लेने  दो,
                                                                    इन  गलियों  में  कुछ  पल  जी  लेने  दो.










शनिवार, 29 मई 2010

बेटियाँ......

मेरी एक दोस्त ने अपने ब्लॉग में लडकियों के अभिशप्त जीवन के ऊपर कविता और लेख लिखी है. अपने प्रगतिशील  देश में लड़कियों के ऐसे बद्दतर हालत पर मुझे भी कुछ कहने को मन करता है.
         सबसे पहले मै तेजी से तरक्की के ढिंढोरा पीटने वाले भारत के कुछ आंकडे बताता हूँ, जिसे सुनकर आप भी एक भारतीय होने पर शर्मिंदगी महसूस करेंगे.  उनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना ७००० लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है. गुजरात में तीन ऐसे गाँव है जहाँ एक भी औरत नहीं बची है. यही नहीं देश के दूरदराज के गाँव में गर्भपात कारँव वाली वैन घुमती है. ये नंगा सच उस देश के बारे में है जिसकी राष्ट्रपति एक महिला है और जहाँ की सत्ता की धुरी एक महिला नेता के इर्द-गिर्द घुमती है.
     पाकिस्तान और नाइजीरिया जैसे देश भारत से ज्यादा पिछड़े है लेकिन वहां का लिंगानुपात भी भारत से ज्यादा बेहतर है.
यह था बेटियों का पैदा होने से पहले का दर्द. लड़कियों के साथ ज्यादती यही ख़त्म नहीं होता. "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो..." अगर यह टीस एक पढ़ी-लिखी लड़की के दिल से निकलता है तब सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है की यहाँ बेटियों को किस तरह से शोषित किया जाता है. एक भारतीय परिवार की पूरी धुरी "बेटा" के इर्द-गिर्द ही घुमती है. बेटा है तो सब कुछ है बेटा नहीं तो परिवार कैसा? बेटियों के प्रति यह परायापन समाज को एक अँधेरी सुरंग में धकेल रहा है.
           कलर्स चैनल पर आने वाली धारावाहिक "बालिका बधू" इस बेटावाद के सोच पर चोट करती है. मुझे इसका एक सीन याद आ रहा है. घर के सदस्यों को पता चलता है की बहु माँ बनने वाली है. यह जानते ही परिवार का प्रत्येक सदस्य पोता होने का उद्घोष करते हुए खुशियाँ मानाने लगता है. यह कहानी एक धारावाहिक का ही नहीं है बल्कि इस देश का एक दुखद सत्य है. बेटे की चाह में दुबे भारतीय बेटियों से इस कदर नफरत करते है की कल्पना करना भी मुमकिन नहीं है.
      अख़बार में रोज बलात्कार की खबरें पढ़कर हम उस पर दुःख व्यक्त कर लेते हैं, लेकिन उनकी भावनाओं के  साथ प्रत्येक क्षण बलात्कार होता है यह शायद ही कोई समझने की कोशिश  करता है.
 बेटियों से नफरत ऐसे हीं किया जाता रहा तो निश्चित है की इसका व्यवस्थित सामाजिक ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. जो परिवार इस संकीर्ण मानसिकता को छोड़ने को तैयार नहीं उनके लिए परिवार कानून के बन्धनों को इतना कठोर बनाने की जरुरत है की स्वपन में भी बेटियों को प्रताड़ित करने की कल्पना न कर सके.

बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

आज का हाईटेक प्यार!

"यह इश्क नही आसां, बस इतना समझ इतना समझ लीजिये,
एक आग का दरिया है, डूब कर जाना है"

जिगर मुरादाबादी ने यह शेर ६०-७० के दशक के प्रेम-प्रसंगों को देखकर लिखा होगा। अभी के प्यार लीलाओं को देखकर जिगर मुरादाबादी अपनी सोच बदलने पर मजबूर हो जायेंगे। जो लोग ६०-७० वाले प्यार के परिभाषाओ पर अभी भी यकीं रखते है, उन्हें बता दूँ की यह 'प्यार' अब बाजार का एक बड़ा बिषय है। तकनीक ने अब इसे एक उद्योग बना दिया है। प्यार अब तो एक कारोबार है जो इन्टरनेट , अखबार और टेलिविज़न शो पर चलता है। और इस कारोबार का भारतीय अर्थव्यवस्था में बढ़िया पैठ है।

यदि आपने प्यार करने का मन बना लिया है तो अब वो आपको "वो पहली नजर" इन्तजार में समय बरबाद न करें। इन्टरनेट पर ऐसे सैकडों वेबसाइट है जो प्यार करवाने का पुण्य काम करते है। आपको बस यहाँ सदस्य बनाना होगा और कुछ शुल्क भी देना होगा। याहू मेस्सन्जेर खोलिए, इन्स्टंट मेसेज वाली बॉक्स में ASL लिखकर भेजिए। सामने कोई मिल गयी तो फ़िर शुरू हो जाइये। पहले मुझे भी ASL का मतलब पता नही था। दरअसल मैं भी एक बार इस प्रश्न से गुजरा। एक बार मेरे बॉक्स में प्रकट हुआ-"ASL PLS मैंने इसका मतलब पूछा तो सामने से सवाल आया,"AGE, SEX AND LIVING क्या है? मैंने मेल बताया तो अगला मेसेज आया ही नही। मै समझ गया भाई साहेब फेमेल ढूंढ़ रहे है। मै तो इन्टरनेट पर होने वाले प्यार की गति से प्रभावित हूँ। शब्द ASL से ही आशिक सामने वाले के जैसे सारा कुंडली जान लेता है। बात बनी  तो ठीक है , वरना अगले से-ASL । यदि कोई बिंदास टाइप की मिल गयी तो अगला प्रश्न रंग, फिगर, या पहने गए अन्तर-वस्त्र से होता है। फ़िर शुरू होता है रसीली और सेक्सी बातों का सिलसिला ताकि यौन फंतासी में पुरी तरह डुबकी लगाया जाए। यदि किसी ने अपनी आई डी किस्सिंग गर्ल के नाम से बनाया हुआ है तो MACHO MAN टाइप के लोग उस पर टूट पड़ते है। कई नेट सर्विस देनी वाली कंपनी ने तो बाकायदा डेटिंग और स्पीड डेटिंग का कारोबार चला रखा है जो लड़के-लड़कियों के प्रस्ताव और संदेशो को विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करती है। यह तो हुई वेब दुनिया का प्यार।

प्यार तो अब टेलिकॉम कंपनियां ने भी बांटना शुरू कर दिया है खुल्ले के भाव में। आप किसी भी टेलिकॉम कंपनी के सर्विस ले रहे हो प्रतिदिन आपके पास एक मेसेज आयेगा -"looking for sexy and hot partner??? now just msg on 0xxxxxxx। Rs. 6 per msg. . कुछ इस तरह। ५-६ रुपये में आपका प्यार आपके फ़ोन में। आपको सिर्फ़ मेसेज करना पड़ेगा। फ़ोन वाला प्यार का एक तरीका और भी है। अखवारों में रोज एक विज्ञापन आता है-dial on 00xxxxxxx to talk hot indian girls। इंडियन grls se बात करने के लिए ISD नम्बर का चक्कर मुझे समझ में नही आता है।

यह तो कुछ भी नही। अब तो चैनल वाले भी T.V पर लाइव शादी करवा रहे है। टेलिविज़न के इतिहास में पहली बार कुछ दिन पहले राखी सावंत ने स्वयंवर रचाया। महीने भर वह १६ लड़को के साथ दिल तोड़ने-जोड़ने का खेल खेलती रही और जनता  आंखें गडाकर देखती रही। चैनल भी अपना TRP बढाती रही। यही नौटंकी अब राहुल महाजन करने वाले है।

आजकल १५-१८ के बीच के लड़के-लड़कीयओं के बीच एक ट्रेंड चला हुआ है। अखवारों में अपने प्रेम-पत्र छपवाने का। एक अलग से बॉक्स बना होता है "तेरे नाम के लिए"। एक लड़का अपनी प्रेमिका के लिए एक संदेश छपवाता है-"नीलू डार्लिंग, तुम चाँद से भी ज्यादा सुंदर हो। मै तुम्हे दिलोजान से प्यार करता हूँ । तुम्हारे लिए जान भी दे सकता हु। तुम्हारा रॉकी। तो ऐसे चलता रहता है प्यार में जान देने की बातें। प्रेमिका के नाम ख़त छपवाकर ऐसे खुश होते  है जैसे उनके लिए ताजमहल बनवा दिया हो। अखवार और फ़ोन वाले ऐसे हजारों रॉकी से लाखो कमाते है।

तो इस प्रकार बहुत बिंदास और हाईटेक हो गया है प्यार करने के तरीके. यह सारे तरीके तो अलग-अलग है लेकिन एक चीज इनमे सामान है - बाजारवाद. अब तो प्यार एक ब्रांड है जिसमे करोड़ो का निवेश होता है. करीब साल भर पहले एक फिल्म देखा था- गौड तुस्सी ग्रेट हो! उसके एक सीन में हीरो को झूठ पकड़ने वाली मशीन पर बिठा कर हिरोइन पूछती है क्या तुम  मुझसे सच्चा पर करते हो? मुझे लगता है जल्द ही सड़को पर नाइ की दुकान की तरह 'मशीन से प्यार का परिक्षण' की दुकान खुलेगी.   प्रेमी-प्रेमिका वहां आएंगे और एक दुसरे का टेस्ट करेंगे. टेस्ट हो जाने के बाद दुकानदार उन्हें सर्टिफिकेट देगा.
  धंधा अच्छा जमेगा. सोच रहा हूँ इसकी शुरुआत मै ही कर दूँ. यदि आप किसी से प्यार करते या करती है तो और आपको अपने पार्टनर पर थोडा कम विश्वास है तो आपका स्वागत है. मेरे दुकान का उद्घाटन करने स्वर्ग से लेना-मजनू आएंगे. मेरी दूकान का नाम और पता आपको अगले लेख में बताऊंगा.
धन्यबाद!!!!!!!!!!!!!!!!