पिछले दिनों एक लघु फीचर फिल्म "निजात" की एडिटिंग में व्यस्त था. सहरसा (बिहार) के रहने वाले एक नृत्य शिक्षक शशिकांत झा ने फिल्म को बनाया है. लगभग ७ साल पहले वे उड़ीसा के राउरकेला के आस-पास सरकारी शिक्षक के रूप में नौकरी पर थें. वहीँ के ग्रामीण जनजातियों के अंतर्द्वंध को उन्होंने अपनी फिल्म में दिखाया है. स्थानीय चुने हुए कलाकारों को लेकर उन्होंने अच्छा फिल्मांकन किया है. मुझे बहुत खुशी हुई इस फिल्म को अंतिम रूप देकर.
खैर, झा सर कह रहे थे की अच्छा होता की इस फिल्म को एक और वर्जन देता. उनका इशारा "निजात" को उड़ीसा के जनजातियों की भाषा में भी पिरोने का था. कह रहे थे की स्क्रीनिंग के लिए अच्छा खासा निमंत्रण मिल जाता वहां से. लेकिन यह संभव नहीं था. कितना मुश्किल से वो इसे हिंदी में ही बना पायें हैं. हमारी बीच की इस discussion से मेरे अन्दर यह जिज्ञासा हुई की स्थानीय भाषाओं में बने फिल्मों का इतिहास क्या रहा है और इसका भविष्य क्या है. इसके बहुत रोचक तथ्य मिलें मुझे.
यहाँ लिखने के लिए मैं अपनी हीं स्थानीय भाषा की फिल्मों के इतिहास को खंगालता हूँ. मेरा जन्म स्थान (नालंदा, बिहार) की भाषा मगही है. बिहार के पटना, नालंदा, नवादा, और शेखपुरा जिलों के अलावा यह भाषा कहीं भी प्रचलन में नहीं है. लेकिन जानकर आश्चर्य हुआ की मगही में भी कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है और अभी भी कुछ मगहिया प्रेमी इस दिशा में काम कर रहे हैं. उन्ही लोंगो में से एक है पटना के कौशल किशोर (www.magahdesh.blogspot.com ) जिनकी भी इच्छा है मगहिया में एक फीचर फिल्म बनाने का. खैर, मगहिया फिल्म के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी फिल्म "भैया" का निर्माण. "भैया" का लेखन और निर्देशन फनी मजुमदार ने किया था. किसे पता होगा की मगही भाषा के इस फिल्म में तब की प्रसिद्व आइटम डांसर हेलेन ने आइटम डांस और मशहूर अदाकारा पद्मा खन्ना ने अभिनय किया था. "भैया" १९६५ में बनी थी और तब इसे नालंदा, पटना के आस-पास के इलाकों के खपरैल सिनेमाघरों में रिलीज़ किया गया था. इसका निर्माण नालंदा के हीं एक फिल्म संघ 'नालंदा चित्र प्रतिष्ठान' ने किया था. निर्देशक फनी मजुमदार के बारे में भी एक रोचक तथ्य यह है की वह भारत के अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने ९ भाषाओँ में फिल्में बनाई है.
"भैया" की कहानी और चित्रांकन आज की फूहड़पन से लबालब भोजपुरी फिल्मों की तरह नहीं था. फिल्म देखकर तब के फिल्म-निर्माण शैली की परपक्वता का अंदाजा होता है. तब स्थानीय मगहिया दर्शक फिल्में आइटम नम्बर के लटके-झटके देखने नहीं बल्कि घर-बार की कहानियां देखने जाते थे. कुछ वाक्यों में "भैया" के कहानी भी बताना चाहूँगा-
एक गरीब इंसान परमानन्द अपनी विधवा सौतेली माँ, सौतेला भाई मुरली और सौतेली बहन कमला के साथ रहता है. परमानन्द अपनी गाँव की हीं बिंदु से प्यार करता है और शादी करना चाहता है. मुरली जब बम्बई से पढाई करके लौटता है तब उसे भी बिंदु से प्यार हो जाता है. परमानन्द मुरली के खुशी के लिए उसकी शादी बिंदु से करवा देता है लेकिन मुरली शादी के बाद गाँव की एक दूसरी लड़की चन्द्रा पर डोरे डालने लगता है. परमानन्द अपनी प्यार बिंदु के खुशी के लिए मुरली को समझाता है लेकिन मुरली उल्टा परमानन्द से झगडा कर कोर्ट में अपने पिता की सारी सम्पति पर पूरा हक के लिए अर्जी दे देता है.
परमानन्द का अपने भाई के लिए प्यार की कुर्बानी, फिर अपने प्यार के खातिर अपने अधिकारों की कुर्बानी..... रिश्तों का ताना-बाना.. पूरी फिल्म को जबरदस्त परिपक्व बनाता है. यह कहानी उस फिल्म की है जो मगहिया फ़िल्मी इतिहास की सबसे पहली कड़ी है. और शायद आखिरी भी. क्यूंकि "भैया" के बाद मगही भाषा में एक पूरी फीचर फिल्म के निर्माण न के बराबर हुए.
फिल्म निर्माण में अब पैसावाद आ गया है. फिल्मों को तो अब वर्ल्ड-वाइड रिलीज़ किया जाता है तभी तो आज के लटके झटके वाले भोजपुरी फिल्मों को भी भारत के साथ साथ, अमेरिका, नीदरलैंड, साउथ अफ्रीका में भी रिलीज़ किया जाता है. एक स्थानीय भाषा में फिल्म बनाना तो अब बहुत बड़ा जोखिम है. यह बात सभी प्रकार के फिल्मकार समझते है. शशिकांत झा जैसे बहुत छोटे स्तर के फिल्मकार भी. वह भी जानते है की आर्ट फिल्मों का भी अब कैसे commercialise किया जाता है. स्थानीय भाषा में फिल्में बनाना तब एक जोखिम भरा काम नहीं होगा जब कला फिल्मों को सिर्फ 'कला' और 'प्रदर्शन' के लिए बनाया जायेगा और निश्चित हीं जिसका उद्देश्य पैसा बनाना नहीं होगा. और इसकी एक बड़ी जिम्मेदारी S.R.F.T.I और F.T.I.I जैसे संस्थानों की है जो अपने यहाँ हाँथ के उँगलियों की संख्या जीतनी (S.R.F.T.I -१० seats & F.T.I.I -१२ seats ) विद्यार्थियों को प्रवेश देते हैं.
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