शुक्रवार, 25 नवंबर 2011
गुरुवार, 11 अगस्त 2011
Match of India Vs England
यहाँ निचे आप अभी चल रहे भारत Vs इंग्लैंड टेस्ट मैच देख सकते हैं.
You can watch here the test match of India Vs England being currently.
गुरुवार, 7 जुलाई 2011
अन्ना, बाबा गांधीवाद और जनता बहसबाज़
किसी ने मोबाइल पर मेसेज किया. "उस औरत का क्या हुआ जिसके सलवार शूट पहनकर बाबा रामदेव रामलीला मैदान से निकले?". बाबा रामदेव वाले प्रकरण पर ये तो था उन लोंगो की प्रतिक्रिया जो देश में चल रहे किसी भी खेल में अपनी मतलब के 'फन' ढूंढ़ लेते हैं. एक और वाकया.. सेक्टर -३७ से मीठापुर जाने वाली वैन में बैठा था. रिटाएर के कगार पे खड़े ४-५ अंकल जी टाइप के लोग आपस में बँट गए और लगे मंथन करने की कौन सही है, बाबा रामदेव या फिर सरकार.
चीजों पर प्रतिक्रिया देना अच्छा है लेकिन हम अति-प्रतिक्रियावाद क्यूँ बनने लगते हैं? भारतीय विद्या भवन से पत्रिकारिता की विद्यार्थी संचिता उपाध्याय अपने फेसबुक नोट में लिखती हैं - "क्या आप इस ढोंग जिसे कथित 'सत्याग्रह' कहा जा है का समर्थन करते हैं. क्या आप देश ऐसे किसी बाबा के हाथ में जाने देंगे जो ....." बेगरेह..बेगरेह. कांग्रेस ने बाबा में कमियां निकाली, कुछ आरोप -सरोप लगाये, मीडिया ने सुर बदला आम आदमी के भी सुर बदलने लगे. इन सब से मुख्य मुद्दा का वहीँ धाक के तीन पात होकर रह गया. कहा जा रहा है सत्याग्रह करने वाले ऐसे औरतों के लिबास में मुंह छुपा कर थोड़े भागते हैं, सत्याग्रह तो गाँधी जी ने किया था. बाबा ने तो सत्याग्रह का अपमान किया.
मेरे जैसे टेक्निकल को 'सत्याग्रह' शब्द का मतलब समझ में नहीं आता. बिना भूमिका बांधे सीधे-सीधे वो लिखता हूँ, जो मैंने गांधीजी के द्वारा लिखे हीं 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में पढ़ा. ये वह घटना है जब गाँधी जी को भी छुप कर भागना पड़ा था.
गांधी जी अपने परिवार के साथ भारत से नेटाल (साउथ अफ्रीका का एक राज्य) के लिए स्टीमर से चल चुके थे। तब डरबन में एक अलग किस्म की लड़ाई चल रही थी। वहां के लोग गांधीजी से खफा थे. उन पर आरोप था की उन्होंने भारत में नेटाल वासियों गोरों की निंदा की थी और दूसरी यह की वह नेटाल को भारतीयों से भर देना चाहते थे.
गांधी जी निर्दोष थे। उन्होंने भारत में कोई ऐसी नई बात नहीं कही थी जो उन्होंने इसके पहले नेटाल में न कही हो। और जो कुछ भी उन्होंने कहा था पक्के सबूत के बल पर कहा था।
गांधी जी से जहाज पर कप्तान ने पूछा, “गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं, उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुंचायें, तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस प्रकार अमल करेंगे?” गांधी जी ने जवाब दिया, “मुझे आशा है कि उन्हें माफ़ कर देने की और उन पर मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा।” कई दिन तक बन्दरगाह पर जहाज लगा रहा, उन्हें जहाज से उतरने की इज़ाज़त नहीं मिली। धमकी दी गई कि जान खतरे में है। आखिर 13 जनवरी 1897 को उतरने का आदेश मिला। गोरे उत्तेजित थे। गांधी जी के प्राण संकट में थे। पोर्ट सुपरिण्टेण्डेण्ट टेटम के साथ गांधी जी को चलने को कहा गया। अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि लाटन ने कप्तान से कहा कि स्टीमर एजेण्ट के वकील के नाते वे गांधी जी को अपने साथ ले जाएंगे। लाटन ने गांधी जी को कहा कि बा और बच्चे गाड़ी में रुस्तम सेठ के घर जायें और वे दोनों पैदल चलें। वे नहीं चाहते थे कि अंधेरा हो जाने पर शहर में दाखिल हुआ जाए। चोरी-छुपे जाना कोई अच्छा काम नहीं है। गांधी जी इस सलाह पर सहमत हुए। बा और बच्चे गाड़ी में बैठकर रुस्तमजी के घर सही सलामत पहुंच गए। गांधी जी लाटन के साथ मील भर की दूरी पर स्थित रुस्तम जी के घर के लिए पैदल चले। कुछ ही दूर चलने पर कुछ लड़कों ने उन्हें पहचान लिया। वे चिल्लाने लगे, “गांधी, गांधी”। काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए। चिल्लाने का शोर बढ़ने लगा। भीड़ को बढ़ते देख लाटन ने रिक्शा मंगवाया। न चाहते हुए भी गांधी जी को उसमें बैठना पड़ा। पर लड़कों ने रिक्शेवाले को धमकाया और वह उन्हें छोड़कर भाग खड़ा हुआ। वे आगे बढ़े। भीड़ बढ़ती ही गई। भीड़ ने लाटन को अलग कर दिया। फिर गांधी जी पर पत्थरों और अंडों की वर्षा शुरु हो गई। किसी ने उनकी पगड़ी उछाल कर फेंक दिया। फिर लातों से उनकी पिटाई की गई। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। गांधी जी को गश आ गया। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की रेलिंग को थामा। फिर भी उनकी पीटाई-कुटाई चलती रही। तमाचे भी पड़ने लगे। इतने में एक पुलिस अधीक्षक की पत्नी, श्रीमती एलेक्जेंडर, जो गांधी जी को पहचानती थी, वहां से गुज़र रही थी। वह बहादुर महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली, जिससे पत्थरों और अंडों की बौछाड़ से गांधी जी बच सकें। इससे भीड़ कुछ नरम हुई। अब स्थिति यह थी की यदि बापू पर प्रहार करने हों तो मिसेज एलेक्ज़ेंडर को बचाकर ही किये जा सकते थे। थाने में खबर पहुंची।
पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्ज़ेण्डर ने एक टुकड़ी गांधी जी को घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुंची। रुस्तमजी के घर तक जाने के रास्ते के बीच में थाना पड़ता था। एलेक्ज़ेण्डर ने थाने में ही आश्रय लेने की सलाह दी। गांधी जी ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, “जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त होकर चले जाएंगे। मुझे उनकी न्याय बुद्धि पर विश्वास है।” पुलिस दस्ते ने उन्हें सही सलामत रुस्तमजी के घर तक छोड़ दिया। गांधी जी की पीठ पर मार पड़ी थी। एक जगह से ख़ून निकल आया था। चिकित्सक को बुलाकर गांधीजी की चोटों का इलाज करवाया गया। भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। रात घिर आई थी। वे गांधीजी की मांग कर रहे थे। “गांधी को हमें सौंप दो। हम उसे जिन्दा जला देंगे”। भीड़ चीख रही थी। “इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे”। परिस्थिति का ख्याल करके एलेक्ज़ेंडर वहां पहुंच गये थे। भीड़ को वे धमकी से नहीं, बल्कि उनका मन बहला कर वश में कर रहे थे। पर स्थिति नियंत्रित नहीं हो रही थी। भीड़ धमकी दे रही थी कि यदि गांधी जी को उन्हें नहीं दे दिया गया तो घर में आग लगा देंगे। एलेक्ज़ेंडर ने गांधी जी को संदेश भिजवाया, “यदि आप अपने मित्र का मकान, अपना परिवार और माल-असबाब बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिए।”
इस पुरे प्रसंग पर गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में टिपण्णी के रूप में जो लिखा मैं यहाँ हुबहू लिखता हूँ - "कौन कह सकता है कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार जी प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता है कि संकट के प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ है। उनका उपयोग यही है कि जो हो चुका है, उसे समझ लें और उससे जितना सीखने को मिले, सीख लें। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती है, वह अधूरी और अनुमान-मात्र होती है।” पता नहीं क्यूँ लोग इसे आज के सन्दर्भ में नहीं देखते.
बात सिर्फ इतनी सी है की हम तथ्यों को पीछे छोड़कर बहसबाजी में लग जाते हैं. "बाबा ने सत्याग्रह का अपमान कर दिया", "योगी को तो सिर्फ योग सिखानी चाहिए, राजनीति नहीं करनी चाहिए" बेगरेह. बेगरेह! . फेसबुकबाजों ने इसका बाज़ार गर्म कर रखा है, ब्लॉग पर कमेन्टबाज़ भी इसे घिसेड़ रहे हैं. मेन मुद्दा कहाँ है? अगर बाबा एक योगी होकर काले धन के मुद्दे को उठाता है तो इसमें दिक्कत क्या है? रात को १ बजे अपनी हड्डियाँ तुडवाने के बजाये महिला भेष में भाग गया तो देशद्रोही थोड़े हो गया.
अब 'द ग्रेट कांग्रेस' पर आते हैं. गांधीजी जब देश से बाहर जा रहे धन को रोकने के लिए लड़ाई लड़ते हैं, स्वदेशी अपनाते हैं, तब कांग्रेस उन्हें अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाती है. लड़ाई लड़ती है. लेकिन अब जब एक बाबा विदेशों में जमा भारतीयों का काला धन वापिस लाने का मांग करता है तब यही कांग्रेस उस पर आरोप लगाती है. गांधीजी ने ३६वें साल में ब्रह्मचर्य का जीवन अपना लिया था, तब तो कांग्रेस ने उनसे नहीं कहा था की आप ब्रह्मचर्य होकर राजनीति क्यूँ करते है? कांग्रेस ने तब के अपने सभी आंदोलनों में गांधीजी को अपना हिस्सा बनाया था. अब कांग्रेसी एक आन्दोलनकारी योगी को कहता है-यू शुल्ड कन्सेन्ट्रेट ऑन योर योगा एण्ड साधुगिरी, नहीं तो अगर हमें राजनीति सिखाने आए तो तुम्हें तुम्हारी सारी गांधीगिरी भुला देंगे।
इस सब के बिच मीडिया भेड़ियाधसान ख़बरबाज़ी कर रहा है, फेसबुक वाले मस्तीबाज़ी कर रहे हैं, sms वाले फन्नी मेसेज बनकर लोंगो को हंसा रहे हैं. लिटरेट और कॉरपोरेट वाले लोग मंहगे कॉफ़ी शॉप में कॉफ़ी के चुस्कियां लेते हुए 'बाबा-अन्ना वनाम सरकार' बतिया कर टाइम पास कर लेते हैं. हम लम्बी बहसबाजी और कमेन्टबाज़ी करके पढ़े-लिखे होने का सबूत दे देते हैं, बाकि होता वही है- धाक के तीन पात. यही हमारी नियति है.
चीजों पर प्रतिक्रिया देना अच्छा है लेकिन हम अति-प्रतिक्रियावाद क्यूँ बनने लगते हैं? भारतीय विद्या भवन से पत्रिकारिता की विद्यार्थी संचिता उपाध्याय अपने फेसबुक नोट में लिखती हैं - "क्या आप इस ढोंग जिसे कथित 'सत्याग्रह' कहा जा है का समर्थन करते हैं. क्या आप देश ऐसे किसी बाबा के हाथ में जाने देंगे जो ....." बेगरेह..बेगरेह. कांग्रेस ने बाबा में कमियां निकाली, कुछ आरोप -सरोप लगाये, मीडिया ने सुर बदला आम आदमी के भी सुर बदलने लगे. इन सब से मुख्य मुद्दा का वहीँ धाक के तीन पात होकर रह गया. कहा जा रहा है सत्याग्रह करने वाले ऐसे औरतों के लिबास में मुंह छुपा कर थोड़े भागते हैं, सत्याग्रह तो गाँधी जी ने किया था. बाबा ने तो सत्याग्रह का अपमान किया.
मेरे जैसे टेक्निकल को 'सत्याग्रह' शब्द का मतलब समझ में नहीं आता. बिना भूमिका बांधे सीधे-सीधे वो लिखता हूँ, जो मैंने गांधीजी के द्वारा लिखे हीं 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में पढ़ा. ये वह घटना है जब गाँधी जी को भी छुप कर भागना पड़ा था.
गांधी जी अपने परिवार के साथ भारत से नेटाल (साउथ अफ्रीका का एक राज्य) के लिए स्टीमर से चल चुके थे। तब डरबन में एक अलग किस्म की लड़ाई चल रही थी। वहां के लोग गांधीजी से खफा थे. उन पर आरोप था की उन्होंने भारत में नेटाल वासियों गोरों की निंदा की थी और दूसरी यह की वह नेटाल को भारतीयों से भर देना चाहते थे.
गांधी जी निर्दोष थे। उन्होंने भारत में कोई ऐसी नई बात नहीं कही थी जो उन्होंने इसके पहले नेटाल में न कही हो। और जो कुछ भी उन्होंने कहा था पक्के सबूत के बल पर कहा था।
गांधी जी से जहाज पर कप्तान ने पूछा, “गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं, उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुंचायें, तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस प्रकार अमल करेंगे?” गांधी जी ने जवाब दिया, “मुझे आशा है कि उन्हें माफ़ कर देने की और उन पर मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा।” कई दिन तक बन्दरगाह पर जहाज लगा रहा, उन्हें जहाज से उतरने की इज़ाज़त नहीं मिली। धमकी दी गई कि जान खतरे में है। आखिर 13 जनवरी 1897 को उतरने का आदेश मिला। गोरे उत्तेजित थे। गांधी जी के प्राण संकट में थे। पोर्ट सुपरिण्टेण्डेण्ट टेटम के साथ गांधी जी को चलने को कहा गया। अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि लाटन ने कप्तान से कहा कि स्टीमर एजेण्ट के वकील के नाते वे गांधी जी को अपने साथ ले जाएंगे। लाटन ने गांधी जी को कहा कि बा और बच्चे गाड़ी में रुस्तम सेठ के घर जायें और वे दोनों पैदल चलें। वे नहीं चाहते थे कि अंधेरा हो जाने पर शहर में दाखिल हुआ जाए। चोरी-छुपे जाना कोई अच्छा काम नहीं है। गांधी जी इस सलाह पर सहमत हुए। बा और बच्चे गाड़ी में बैठकर रुस्तमजी के घर सही सलामत पहुंच गए। गांधी जी लाटन के साथ मील भर की दूरी पर स्थित रुस्तम जी के घर के लिए पैदल चले। कुछ ही दूर चलने पर कुछ लड़कों ने उन्हें पहचान लिया। वे चिल्लाने लगे, “गांधी, गांधी”। काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए। चिल्लाने का शोर बढ़ने लगा। भीड़ को बढ़ते देख लाटन ने रिक्शा मंगवाया। न चाहते हुए भी गांधी जी को उसमें बैठना पड़ा। पर लड़कों ने रिक्शेवाले को धमकाया और वह उन्हें छोड़कर भाग खड़ा हुआ। वे आगे बढ़े। भीड़ बढ़ती ही गई। भीड़ ने लाटन को अलग कर दिया। फिर गांधी जी पर पत्थरों और अंडों की वर्षा शुरु हो गई। किसी ने उनकी पगड़ी उछाल कर फेंक दिया। फिर लातों से उनकी पिटाई की गई। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। गांधी जी को गश आ गया। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की रेलिंग को थामा। फिर भी उनकी पीटाई-कुटाई चलती रही। तमाचे भी पड़ने लगे। इतने में एक पुलिस अधीक्षक की पत्नी, श्रीमती एलेक्जेंडर, जो गांधी जी को पहचानती थी, वहां से गुज़र रही थी। वह बहादुर महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली, जिससे पत्थरों और अंडों की बौछाड़ से गांधी जी बच सकें। इससे भीड़ कुछ नरम हुई। अब स्थिति यह थी की यदि बापू पर प्रहार करने हों तो मिसेज एलेक्ज़ेंडर को बचाकर ही किये जा सकते थे। थाने में खबर पहुंची।
पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्ज़ेण्डर ने एक टुकड़ी गांधी जी को घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुंची। रुस्तमजी के घर तक जाने के रास्ते के बीच में थाना पड़ता था। एलेक्ज़ेण्डर ने थाने में ही आश्रय लेने की सलाह दी। गांधी जी ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, “जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त होकर चले जाएंगे। मुझे उनकी न्याय बुद्धि पर विश्वास है।” पुलिस दस्ते ने उन्हें सही सलामत रुस्तमजी के घर तक छोड़ दिया। गांधी जी की पीठ पर मार पड़ी थी। एक जगह से ख़ून निकल आया था। चिकित्सक को बुलाकर गांधीजी की चोटों का इलाज करवाया गया। भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। रात घिर आई थी। वे गांधीजी की मांग कर रहे थे। “गांधी को हमें सौंप दो। हम उसे जिन्दा जला देंगे”। भीड़ चीख रही थी। “इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे”। परिस्थिति का ख्याल करके एलेक्ज़ेंडर वहां पहुंच गये थे। भीड़ को वे धमकी से नहीं, बल्कि उनका मन बहला कर वश में कर रहे थे। पर स्थिति नियंत्रित नहीं हो रही थी। भीड़ धमकी दे रही थी कि यदि गांधी जी को उन्हें नहीं दे दिया गया तो घर में आग लगा देंगे। एलेक्ज़ेंडर ने गांधी जी को संदेश भिजवाया, “यदि आप अपने मित्र का मकान, अपना परिवार और माल-असबाब बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिए।”
इस पुरे प्रसंग पर गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में टिपण्णी के रूप में जो लिखा मैं यहाँ हुबहू लिखता हूँ - "कौन कह सकता है कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार जी प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता है कि संकट के प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ है। उनका उपयोग यही है कि जो हो चुका है, उसे समझ लें और उससे जितना सीखने को मिले, सीख लें। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती है, वह अधूरी और अनुमान-मात्र होती है।” पता नहीं क्यूँ लोग इसे आज के सन्दर्भ में नहीं देखते.
बात सिर्फ इतनी सी है की हम तथ्यों को पीछे छोड़कर बहसबाजी में लग जाते हैं. "बाबा ने सत्याग्रह का अपमान कर दिया", "योगी को तो सिर्फ योग सिखानी चाहिए, राजनीति नहीं करनी चाहिए" बेगरेह. बेगरेह! . फेसबुकबाजों ने इसका बाज़ार गर्म कर रखा है, ब्लॉग पर कमेन्टबाज़ भी इसे घिसेड़ रहे हैं. मेन मुद्दा कहाँ है? अगर बाबा एक योगी होकर काले धन के मुद्दे को उठाता है तो इसमें दिक्कत क्या है? रात को १ बजे अपनी हड्डियाँ तुडवाने के बजाये महिला भेष में भाग गया तो देशद्रोही थोड़े हो गया.
अब 'द ग्रेट कांग्रेस' पर आते हैं. गांधीजी जब देश से बाहर जा रहे धन को रोकने के लिए लड़ाई लड़ते हैं, स्वदेशी अपनाते हैं, तब कांग्रेस उन्हें अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाती है. लड़ाई लड़ती है. लेकिन अब जब एक बाबा विदेशों में जमा भारतीयों का काला धन वापिस लाने का मांग करता है तब यही कांग्रेस उस पर आरोप लगाती है. गांधीजी ने ३६वें साल में ब्रह्मचर्य का जीवन अपना लिया था, तब तो कांग्रेस ने उनसे नहीं कहा था की आप ब्रह्मचर्य होकर राजनीति क्यूँ करते है? कांग्रेस ने तब के अपने सभी आंदोलनों में गांधीजी को अपना हिस्सा बनाया था. अब कांग्रेसी एक आन्दोलनकारी योगी को कहता है-यू शुल्ड कन्सेन्ट्रेट ऑन योर योगा एण्ड साधुगिरी, नहीं तो अगर हमें राजनीति सिखाने आए तो तुम्हें तुम्हारी सारी गांधीगिरी भुला देंगे।
इस सब के बिच मीडिया भेड़ियाधसान ख़बरबाज़ी कर रहा है, फेसबुक वाले मस्तीबाज़ी कर रहे हैं, sms वाले फन्नी मेसेज बनकर लोंगो को हंसा रहे हैं. लिटरेट और कॉरपोरेट वाले लोग मंहगे कॉफ़ी शॉप में कॉफ़ी के चुस्कियां लेते हुए 'बाबा-अन्ना वनाम सरकार' बतिया कर टाइम पास कर लेते हैं. हम लम्बी बहसबाजी और कमेन्टबाज़ी करके पढ़े-लिखे होने का सबूत दे देते हैं, बाकि होता वही है- धाक के तीन पात. यही हमारी नियति है.
रविवार, 12 जून 2011
काश....
काश....
की वो समझ पातें.
मैं तो उन्हें एक नजर देखने,
बाँहों में लेकर माथे को चूमने के लिए बस,
खुद को बनावटी बनाकर,
किस कदर 'बहुरुपिया' बने फिर रहा हूँ.
काश,
की वो समझ पातें,
दुयाएँ तो मैं भी मांगता हूँ उनके लिए,
जो मुझे बताने नहीं आता,
इस कदर बसतें हैं वो मुझमे,
जो मुझे जताने नहीं आता.
काश,
की वो समझ पातें
जिंदगी जीना सिख लेने का जो दंभ है मेरा,
यह तो बस 'अनुसरण' है उनका,
की जिसके लिए कभी वो कोई,
ऐतराज जता पाते.
काश,
की हालात और परिवेश देखकर,
अपने मिजाज बदल लेने के बजाय,
मुझे लेकर भी एक 'सोच' बना पाते.
काश, ...........................
--नारो
१२-०६-11शुक्रवार, 18 मार्च 2011
आज का मीडियावाद
कुछ दिन पहले फेसबुक पर राहुल (working with Aaj-Tak, TV Today Network, as.......don't know the designation) से "भारतीय मीडिया" के ऊपर चर्चा शुरू हुआ जो अगले तीन दिन में लगभग एक लड़ाई का रूप ले लिया. 'आज तक' वालों में एक खास बात यह है की जब ये बोलते हैं तो "देश का सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल" का जोश लबालब होता है. खैर एक 'विडियो एडिटर' और "देश का सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल" के पत्रकार के बिच की शाब्दिक लड़ाई बेनतीजा रही.
सब कुछ फेसबुक के comments में नहीं कह सका इसलिए लिख रहा हूँ.
मैं यहाँ आरुषी वाले घटना को लेकर दो बातें लिखता हूँ.- १. आरुषी और उसके माता-पिता यदि बिहार के किसी दूरदराज जिले के रहने वाले होते तो क्या यह केस इस तरह से हाइप होता? लेकिन चाहे भी हो मीडिया के प्रयास ने उत्तरप्रदेश के एक चौकीदार से लेकर देश के सर्वोच्च जाँच एजेंसी तक को सोचने पर मजबूर किया है.
अब मैं सिर्फ पंक्तियों के क्रमों को पलट देता हूँ. -२. मीडिया के प्रयास ने उत्तरप्रदेश के एक चौकीदार से लेकर सर्वोच्च जाँच एजेंसी तक को सोचने पर मजबूर कर दिया है लेकिन क्या यह तब भी होता यदि आरुषी और उसके माता-पिता बिहार के किसी दूरदराज जिले के रहने वाले होते???
आप मीडिया वाले किस कथन के साथ हैं? शायद व्यावहारिक तौर पर पहली कथन के साथ. आप वास्तव में खुद को व्यावहारिक और भारतीय मीडिया को व्यावसायिक बनाने में जुट गयें. इस कोशिश में आपने इतनी तेज दौड़ लगाई की आप व्यवसायिक ही नहीं 'अति-व्यवसायिक' हो गयें. और अब जो नए generation का खेप आ रहा है वो 'पत्रकार' कम और 'मीडियाकर्मी' ज्यादा है. 'खबर' का मतलब समझ में आये या ना आये, TAM का आंकड़ा कंठस्थ याद हो जाता है, और ये घुट्टी उन्हें उन्ही संस्थानों में ही पिलाई जाती है जहाँ से वो निकलते हैं.
'अति-व्यवसायिक' पर आता हूँ. भारतीय मीडिया बहुत जल्दी में है, और आप मीडिया वाले हड़बड़ी में. आप हड़बड़ी में इसलिए हैं क्यूंकि आप 'डेड-लाइन' में जीते हैं. पहले आप कार्पोरेट के लिए काम करते थे अब खुद 'कार्पोरेट' हो गए हैं. आपको खबर से ज्यादा ध्यान TAM के आंकड़ों पर है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया में क्रांति लाने वाले रजत शर्मा भी अपनी अदालत में राखी सावंत को बुलाकर हँस-ठीठोली करते रहते हैं. इंडिया टीवी के तो जैसे पर निकल आये हैं. वह आजकल 'बिग टॉस' नाम से वर्ल्ड कप पर सबसे बड़ा रियलिटी शो प्रसारित कर रहा है लेकिन उससे कोई पूछनेवाला नहीं है कि न्यूज चैनल पर रियलिटी शो प्रसारित करने की अनुमति किसने दी है? सरकार का हाथ भी आप मीडिया वालों के कंधे पर है. प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से, क्या फर्क पड़ता है. सरकारी आलम तो यह है की इस देश में सरकारी मंचों से टेलीविजन के किसी भी कार्यक्रम पर नकेल तब तक नहीं कसी जाती है जब तक कि कोई हादसा न हो जाए या फिर जनहित में किसी की ओर से मुकदमा न दायर कर दिए जाएं। इस हिसाब से इंडिया टीवी के उपर किसी तरह की कार्यवाई हो इसके लिए हमें किसी बड़े हादसे का इंतजार करना होगा। इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को 'बिग-बॉस' के तर्ज पर एक घर में बंद कर के रखा गया है. उन्हें इस घर में एक डरावनी रास्ते से होकर गुजरना पड़ा. (हालाँकि उस डरावनी रास्ते का फूटेज गाजिअबाद के शिप्रा माल स्थित 'भूत-बंगला' से लिया गया है और एडिटिंग टेबल पर उसे उस घर का रास्ता बना दिया गया.) आजकल उस बंद घर में प्रतियोगिओं के बिच झगड़ा होता है जिसे इंडिया टीवी ब्रेकिंग न्यूज़ के पट्टी पर चलाता है, जैसे-"राखी-वीणा आज सहवाग के लिए लड़ी". अन्दर बंद प्रतियोगी अपने पसंद की खिलाड़ी पर सट्ठा लगाते हैं, और बाहर दर्शक sms करके उन प्रतिओगियों पर. ऐसा लगता है जैसे इस शो का प्रोडूसर पहले UTV Bindass में काम करता था.
राहुल ने एक कमेन्ट में लिखा की ये इंडिया है. यहाँ खबर से ज्यादा लोग मसाला पसंद करते हैं. चैनल हेड से लेकर इन्टर्न करने वाले तक के जुबान पे यही डायलौग चिपका हुआ है. TAM के रिपोर्ट आते हीं आज-तक और इंडिया-टीवी वाले उछल पड़ते हैं. 5 टॉप के कार्यक्रमों में से ४ उन्ही के होते हैं. ये TRP नाम की चीज कितना सच है और कितना धोखा ये सभी न्यूज़ चैनलों के हेड अच्छी तरह समझते और जानते है, ये अलग बात है की वो उसे पकड़ कर झुन्झुन्ना की तरह बजाने पर मजबूर हैं. TRP की इस नौटंकी पर थोड़ा रिसर्च मैंने भी किया. वर्णन करता हूँ.-
भारत में लगभग 50 करोड़ टीवी दर्शक हैं, जिनके आकलन के लिए आपके TAM के पास सिर्फ 8000 पीपुल मीटर है. आपके इसी TAM के मुताबिक, देश में कुल २२.३ करोड़ घर हैं जिनमें से कुल १३.८ करोड़ घरों में टी.वी है. इनमें से १०.३ करोड़ टी.वी घरों में केबल और सेटेलाईट उपलब्ध है जबकि दो करोड़ टी.वी घरों में डिजिटल टी.वी उपलब्ध है.
इसी तरह, देश में कुल टी.वी घरों में ६.४ करोड़ शहरी इलाकों में और सात करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों हैं. लेकिन इससे अधिक हैरानी की बात क्या होगी कि जिस टी.वी रेटिंग के आधार पर चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता का आकलन किया जाता है, उसके ८००० पीपुल मीटरों में एक भी मीटर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है. यही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर, असम को छोड़कर पूरे उत्तर पूर्व में कोई पीपुल मीटर नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन क्षेत्रों के दर्शकों की पसंद कोई मायने नहीं रखती है. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश पीपुल मीटर देश के आठ बड़े महानगरों तक सीमित हैं जहां कुल २६९० मीटर लगे हुए हैं. इस तरह, सिर्फ आठ महानगरों में कुल पीपुल मीटर्स के ३३.६ प्रतिशत लगे हुए हैं. इसमें भी दिल्ली और मुंबई में कुल टी.वी मीटर्स के १३.५ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं जबकि इन दोनों शहरों में देश की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी रहती है. इसी तरह, देश के पश्चिमी हिस्सों खासकर गुजरात (अहमदाबाद सहित) और महाराष्ट्र (मुंबई छोड़कर) में कुल पीपुल मीटर्स के १९ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं.
टी.वी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में जहां अकेले पुणे में १८० पीपुल मीटर्स लगे हुए हैं, वहीँ पूरे बिहार में सिर्फ १५० मीटर्स लगे हैं. इसी तरह, दिल्ली में कुल ५४० पीपुल मीटर्स लगे हैं, वहीँ पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल ४५० मीटर्स लगे हैं.
और भी ज्यादा विस्तृत आंकड़ो के लिए गूगल पर सर्च कर लीजिये.
एक बार मीडिया वाला न बनकर आप विश्लेषण करेगें तो पता चल जायेगा की आप जिस आधार पर खुद को नंबर-१ बनकर ढोल बजाते हैं उसे मुट्ठी भर लोंगों ने नंबर-१ बनाया है. हाँ, यही मुट्ठी भर लोग हैं जो सर्फ़, साबुन और fair & Lovely ज्यादा खरीदते हैं. 'सहारा समय' जैसा न्यूज़ चैनल उत्तरप्रदेश/उत्तराखंड में प्रथम स्थान हासिल करके भी ओवरऑल TRP रेटिंग में ५-६ स्थान पर हीं रहता है क्यूंकि उसे देखने वाले वो हैं जिनके आस-पास पीपुल मीटर बहुत कम लगा हुआ है.
इसलिए आप यह कह सकते हैं हमारे फलाने शो को खूब रेटिंग मिली, फलाने टाइप के शो ने अच्छा बिजनेस किया लेकिन यह नहीं कह सकते की ये इंडिया है यहाँ खबर से ज्यादा लोग मसाला पसंद करते हैं.
आप तो कुछ भी बोलेंगे हीं. भारत के 'महामहिम मीडल क्लास लोग' आपके साथ जो हैं. यही 'महामहिम मीडल क्लास लोग' तो आज कल 'बाजार' बना हुआ है. इनको कुछ भी बेच लो खरीद लेंगे. गली के धुल से लेकर इमोशन तक, सब कुछ. आप मीडिया वाले पीछे क्यूँ रहे. बात पेट का है. अगर जिन्दा रहना है तो न्यूज़ रूम में भूत बुलाओ, फिर भूत भगाने के लिए ' अग्रिम पेड बाबा'.
मेरे एक विडियो एडिटर दोस्त को एक न्यूज़ चैनल के इंटरव्यू में पूछा गया था की युट्यूब से विडियो डाउनलोड करने आता है की नहीं? मैंने १६ दिन सुदर्शन न्यूज़ में ट्रेनी एडिटर के तौर पर काम किया है. वहाँ गुजरात के फर्जी मुठभेड़ वाले कांड पर पॅकेज बनाते समय मुझसे कहा गया की यूट्यूब से सिक्ख विरोधी दंगों के फूटेज निकाल कर उस पॅकेज में लगाओ. कहानी को horrible बनाने के लिए और किसी खबर को 'किसी खास पार्टी' के लिए इस्तेमाल करने में मीडिया पारंगत हो गया है. मीडिया के इस बदलते छबि के खिलाफ जो लोग लिखते हैं या बोलते हैं उन्हें चैनलों के 'TRP मशीन' टाइप के मीडियाकर्मी सलाह देते हैं की ऐसे इमोशनल मत होइए जबकि टॉप ५ में स्थान हासिल करने वाले कार्यक्रमों में से २ या ३ कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिससे दर्शकों को इमोशनली टीवी के आगे बैठने पर मजबूर किया जाता है.
एक और बचकाना सा डायलौग है आप मीडिया वालों का. "रिमोट आपके हाथ में है. जो चाहे देखिये. कोई कार्यक्रम पसंद नहीं है तो मत देखिये". आप बता सकते हैं की पहले इंडिया टीवी ने भूत-प्रेत, टोना-टोटका दिखाना शुरू किया या दर्शकों ने देखना??? या दर्शकों का किसी association ने इसकी डिमांड की थी? 'पसंद नहीं है तो मत देखिये' वाला डायलौग से सिर्फ उल्लू सीधा किया जा सकता है. यह 'द ग्रेट मिडल क्लास' की १ अरब २० करोड़ का भारत है. टीवी, मोबाइल लोंगो के रग-रग में घूंसा हुआ है. क्या दिखाना है, इन लोंगो की मानसिकता को किस ओर लेकर जाना है, ये कही ना कही टीवी कार्यक्रमों बनाने वालों के ऊपर भी निर्भर है. ये आपकी खुसकिस्मती है की इस १ अरब २० करोड़ लोंगो में से वे लोग भी हैं जो 'कमिश्नर के कुत्ते खोने' , 'शमशान पर चमत्कार' जैसे कार्यक्रमों को अपने रिमोट से हटा नहीं पाते. यहीं उनकी मानसिकता है जिसे आप धीरे-धीरे upgrade कर रहे हैं और बाद में TRP में नंबर-१ का डंका बजा लेते हैं. TRP के आंकड़ो के अलावा बहुत से और भी आंकड़े और तथ्य हैं. नंबर-१ होने को सेलेब्रेट करते रहिये लेकिन साथ-साथ उन तथ्यों को भी समझिये. यह सलाह नहीं है . सलाह देने के लिए बहुत छोटा हूँ.
गलत-सलत हिंदी के लिए माफ़ी चाहता हूँ. साधारण सा विडियो एडिटर हूँ, पत्रकार नहीं. राहुल जैसे दोस्त कभी-कभी मजाक में छेड़ देते हैं तब मेरे अन्दर भी एक पत्रकार का भूत घूँस जाता है. वैसे तो अपने देश की आधी आबादी पैदाइशी पत्रकार है और बाकि के आधी नेता.
एक बात और, अपने देश में 'पत्रकार' की महानता को दिखाते हुए एक और कॉलम लिखा है. शीर्षक है-"चले लल्लन पत्रकार बनने" . शीर्षक पर मत जाइएगा. मैंने आप पत्रकार लोंगो का दिल खोलकर तारीफ किया है. वो भी बिलकुल फ्री. जल्दी ही टाइप करके भेजूंगा.
सब कुछ फेसबुक के comments में नहीं कह सका इसलिए लिख रहा हूँ.
मैं यहाँ आरुषी वाले घटना को लेकर दो बातें लिखता हूँ.- १. आरुषी और उसके माता-पिता यदि बिहार के किसी दूरदराज जिले के रहने वाले होते तो क्या यह केस इस तरह से हाइप होता? लेकिन चाहे भी हो मीडिया के प्रयास ने उत्तरप्रदेश के एक चौकीदार से लेकर देश के सर्वोच्च जाँच एजेंसी तक को सोचने पर मजबूर किया है.
अब मैं सिर्फ पंक्तियों के क्रमों को पलट देता हूँ. -२. मीडिया के प्रयास ने उत्तरप्रदेश के एक चौकीदार से लेकर सर्वोच्च जाँच एजेंसी तक को सोचने पर मजबूर कर दिया है लेकिन क्या यह तब भी होता यदि आरुषी और उसके माता-पिता बिहार के किसी दूरदराज जिले के रहने वाले होते???
आप मीडिया वाले किस कथन के साथ हैं? शायद व्यावहारिक तौर पर पहली कथन के साथ. आप वास्तव में खुद को व्यावहारिक और भारतीय मीडिया को व्यावसायिक बनाने में जुट गयें. इस कोशिश में आपने इतनी तेज दौड़ लगाई की आप व्यवसायिक ही नहीं 'अति-व्यवसायिक' हो गयें. और अब जो नए generation का खेप आ रहा है वो 'पत्रकार' कम और 'मीडियाकर्मी' ज्यादा है. 'खबर' का मतलब समझ में आये या ना आये, TAM का आंकड़ा कंठस्थ याद हो जाता है, और ये घुट्टी उन्हें उन्ही संस्थानों में ही पिलाई जाती है जहाँ से वो निकलते हैं.
'अति-व्यवसायिक' पर आता हूँ. भारतीय मीडिया बहुत जल्दी में है, और आप मीडिया वाले हड़बड़ी में. आप हड़बड़ी में इसलिए हैं क्यूंकि आप 'डेड-लाइन' में जीते हैं. पहले आप कार्पोरेट के लिए काम करते थे अब खुद 'कार्पोरेट' हो गए हैं. आपको खबर से ज्यादा ध्यान TAM के आंकड़ों पर है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया में क्रांति लाने वाले रजत शर्मा भी अपनी अदालत में राखी सावंत को बुलाकर हँस-ठीठोली करते रहते हैं. इंडिया टीवी के तो जैसे पर निकल आये हैं. वह आजकल 'बिग टॉस' नाम से वर्ल्ड कप पर सबसे बड़ा रियलिटी शो प्रसारित कर रहा है लेकिन उससे कोई पूछनेवाला नहीं है कि न्यूज चैनल पर रियलिटी शो प्रसारित करने की अनुमति किसने दी है? सरकार का हाथ भी आप मीडिया वालों के कंधे पर है. प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से, क्या फर्क पड़ता है. सरकारी आलम तो यह है की इस देश में सरकारी मंचों से टेलीविजन के किसी भी कार्यक्रम पर नकेल तब तक नहीं कसी जाती है जब तक कि कोई हादसा न हो जाए या फिर जनहित में किसी की ओर से मुकदमा न दायर कर दिए जाएं। इस हिसाब से इंडिया टीवी के उपर किसी तरह की कार्यवाई हो इसके लिए हमें किसी बड़े हादसे का इंतजार करना होगा। इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को 'बिग-बॉस' के तर्ज पर एक घर में बंद कर के रखा गया है. उन्हें इस घर में एक डरावनी रास्ते से होकर गुजरना पड़ा. (हालाँकि उस डरावनी रास्ते का फूटेज गाजिअबाद के शिप्रा माल स्थित 'भूत-बंगला' से लिया गया है और एडिटिंग टेबल पर उसे उस घर का रास्ता बना दिया गया.) आजकल उस बंद घर में प्रतियोगिओं के बिच झगड़ा होता है जिसे इंडिया टीवी ब्रेकिंग न्यूज़ के पट्टी पर चलाता है, जैसे-"राखी-वीणा आज सहवाग के लिए लड़ी". अन्दर बंद प्रतियोगी अपने पसंद की खिलाड़ी पर सट्ठा लगाते हैं, और बाहर दर्शक sms करके उन प्रतिओगियों पर. ऐसा लगता है जैसे इस शो का प्रोडूसर पहले UTV Bindass में काम करता था.
राहुल ने एक कमेन्ट में लिखा की ये इंडिया है. यहाँ खबर से ज्यादा लोग मसाला पसंद करते हैं. चैनल हेड से लेकर इन्टर्न करने वाले तक के जुबान पे यही डायलौग चिपका हुआ है. TAM के रिपोर्ट आते हीं आज-तक और इंडिया-टीवी वाले उछल पड़ते हैं. 5 टॉप के कार्यक्रमों में से ४ उन्ही के होते हैं. ये TRP नाम की चीज कितना सच है और कितना धोखा ये सभी न्यूज़ चैनलों के हेड अच्छी तरह समझते और जानते है, ये अलग बात है की वो उसे पकड़ कर झुन्झुन्ना की तरह बजाने पर मजबूर हैं. TRP की इस नौटंकी पर थोड़ा रिसर्च मैंने भी किया. वर्णन करता हूँ.-
भारत में लगभग 50 करोड़ टीवी दर्शक हैं, जिनके आकलन के लिए आपके TAM के पास सिर्फ 8000 पीपुल मीटर है. आपके इसी TAM के मुताबिक, देश में कुल २२.३ करोड़ घर हैं जिनमें से कुल १३.८ करोड़ घरों में टी.वी है. इनमें से १०.३ करोड़ टी.वी घरों में केबल और सेटेलाईट उपलब्ध है जबकि दो करोड़ टी.वी घरों में डिजिटल टी.वी उपलब्ध है.
इसी तरह, देश में कुल टी.वी घरों में ६.४ करोड़ शहरी इलाकों में और सात करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों हैं. लेकिन इससे अधिक हैरानी की बात क्या होगी कि जिस टी.वी रेटिंग के आधार पर चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता का आकलन किया जाता है, उसके ८००० पीपुल मीटरों में एक भी मीटर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है. यही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर, असम को छोड़कर पूरे उत्तर पूर्व में कोई पीपुल मीटर नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन क्षेत्रों के दर्शकों की पसंद कोई मायने नहीं रखती है. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश पीपुल मीटर देश के आठ बड़े महानगरों तक सीमित हैं जहां कुल २६९० मीटर लगे हुए हैं. इस तरह, सिर्फ आठ महानगरों में कुल पीपुल मीटर्स के ३३.६ प्रतिशत लगे हुए हैं. इसमें भी दिल्ली और मुंबई में कुल टी.वी मीटर्स के १३.५ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं जबकि इन दोनों शहरों में देश की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी रहती है. इसी तरह, देश के पश्चिमी हिस्सों खासकर गुजरात (अहमदाबाद सहित) और महाराष्ट्र (मुंबई छोड़कर) में कुल पीपुल मीटर्स के १९ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं.
टी.वी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में जहां अकेले पुणे में १८० पीपुल मीटर्स लगे हुए हैं, वहीँ पूरे बिहार में सिर्फ १५० मीटर्स लगे हैं. इसी तरह, दिल्ली में कुल ५४० पीपुल मीटर्स लगे हैं, वहीँ पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल ४५० मीटर्स लगे हैं.
और भी ज्यादा विस्तृत आंकड़ो के लिए गूगल पर सर्च कर लीजिये.
एक बार मीडिया वाला न बनकर आप विश्लेषण करेगें तो पता चल जायेगा की आप जिस आधार पर खुद को नंबर-१ बनकर ढोल बजाते हैं उसे मुट्ठी भर लोंगों ने नंबर-१ बनाया है. हाँ, यही मुट्ठी भर लोग हैं जो सर्फ़, साबुन और fair & Lovely ज्यादा खरीदते हैं. 'सहारा समय' जैसा न्यूज़ चैनल उत्तरप्रदेश/उत्तराखंड में प्रथम स्थान हासिल करके भी ओवरऑल TRP रेटिंग में ५-६ स्थान पर हीं रहता है क्यूंकि उसे देखने वाले वो हैं जिनके आस-पास पीपुल मीटर बहुत कम लगा हुआ है.
इसलिए आप यह कह सकते हैं हमारे फलाने शो को खूब रेटिंग मिली, फलाने टाइप के शो ने अच्छा बिजनेस किया लेकिन यह नहीं कह सकते की ये इंडिया है यहाँ खबर से ज्यादा लोग मसाला पसंद करते हैं.
आप तो कुछ भी बोलेंगे हीं. भारत के 'महामहिम मीडल क्लास लोग' आपके साथ जो हैं. यही 'महामहिम मीडल क्लास लोग' तो आज कल 'बाजार' बना हुआ है. इनको कुछ भी बेच लो खरीद लेंगे. गली के धुल से लेकर इमोशन तक, सब कुछ. आप मीडिया वाले पीछे क्यूँ रहे. बात पेट का है. अगर जिन्दा रहना है तो न्यूज़ रूम में भूत बुलाओ, फिर भूत भगाने के लिए ' अग्रिम पेड बाबा'.
मेरे एक विडियो एडिटर दोस्त को एक न्यूज़ चैनल के इंटरव्यू में पूछा गया था की युट्यूब से विडियो डाउनलोड करने आता है की नहीं? मैंने १६ दिन सुदर्शन न्यूज़ में ट्रेनी एडिटर के तौर पर काम किया है. वहाँ गुजरात के फर्जी मुठभेड़ वाले कांड पर पॅकेज बनाते समय मुझसे कहा गया की यूट्यूब से सिक्ख विरोधी दंगों के फूटेज निकाल कर उस पॅकेज में लगाओ. कहानी को horrible बनाने के लिए और किसी खबर को 'किसी खास पार्टी' के लिए इस्तेमाल करने में मीडिया पारंगत हो गया है. मीडिया के इस बदलते छबि के खिलाफ जो लोग लिखते हैं या बोलते हैं उन्हें चैनलों के 'TRP मशीन' टाइप के मीडियाकर्मी सलाह देते हैं की ऐसे इमोशनल मत होइए जबकि टॉप ५ में स्थान हासिल करने वाले कार्यक्रमों में से २ या ३ कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिससे दर्शकों को इमोशनली टीवी के आगे बैठने पर मजबूर किया जाता है.
एक और बचकाना सा डायलौग है आप मीडिया वालों का. "रिमोट आपके हाथ में है. जो चाहे देखिये. कोई कार्यक्रम पसंद नहीं है तो मत देखिये". आप बता सकते हैं की पहले इंडिया टीवी ने भूत-प्रेत, टोना-टोटका दिखाना शुरू किया या दर्शकों ने देखना??? या दर्शकों का किसी association ने इसकी डिमांड की थी? 'पसंद नहीं है तो मत देखिये' वाला डायलौग से सिर्फ उल्लू सीधा किया जा सकता है. यह 'द ग्रेट मिडल क्लास' की १ अरब २० करोड़ का भारत है. टीवी, मोबाइल लोंगो के रग-रग में घूंसा हुआ है. क्या दिखाना है, इन लोंगो की मानसिकता को किस ओर लेकर जाना है, ये कही ना कही टीवी कार्यक्रमों बनाने वालों के ऊपर भी निर्भर है. ये आपकी खुसकिस्मती है की इस १ अरब २० करोड़ लोंगो में से वे लोग भी हैं जो 'कमिश्नर के कुत्ते खोने' , 'शमशान पर चमत्कार' जैसे कार्यक्रमों को अपने रिमोट से हटा नहीं पाते. यहीं उनकी मानसिकता है जिसे आप धीरे-धीरे upgrade कर रहे हैं और बाद में TRP में नंबर-१ का डंका बजा लेते हैं. TRP के आंकड़ो के अलावा बहुत से और भी आंकड़े और तथ्य हैं. नंबर-१ होने को सेलेब्रेट करते रहिये लेकिन साथ-साथ उन तथ्यों को भी समझिये. यह सलाह नहीं है . सलाह देने के लिए बहुत छोटा हूँ.
गलत-सलत हिंदी के लिए माफ़ी चाहता हूँ. साधारण सा विडियो एडिटर हूँ, पत्रकार नहीं. राहुल जैसे दोस्त कभी-कभी मजाक में छेड़ देते हैं तब मेरे अन्दर भी एक पत्रकार का भूत घूँस जाता है. वैसे तो अपने देश की आधी आबादी पैदाइशी पत्रकार है और बाकि के आधी नेता.
एक बात और, अपने देश में 'पत्रकार' की महानता को दिखाते हुए एक और कॉलम लिखा है. शीर्षक है-"चले लल्लन पत्रकार बनने" . शीर्षक पर मत जाइएगा. मैंने आप पत्रकार लोंगो का दिल खोलकर तारीफ किया है. वो भी बिलकुल फ्री. जल्दी ही टाइप करके भेजूंगा.
धन्यबाद!!!!!
बुधवार, 5 जनवरी 2011
स्थानीय फिल्मों के निर्माण का इतिहास और भविष्य
पिछले दिनों एक लघु फीचर फिल्म "निजात" की एडिटिंग में व्यस्त था. सहरसा (बिहार) के रहने वाले एक नृत्य शिक्षक शशिकांत झा ने फिल्म को बनाया है. लगभग ७ साल पहले वे उड़ीसा के राउरकेला के आस-पास सरकारी शिक्षक के रूप में नौकरी पर थें. वहीँ के ग्रामीण जनजातियों के अंतर्द्वंध को उन्होंने अपनी फिल्म में दिखाया है. स्थानीय चुने हुए कलाकारों को लेकर उन्होंने अच्छा फिल्मांकन किया है. मुझे बहुत खुशी हुई इस फिल्म को अंतिम रूप देकर.
खैर, झा सर कह रहे थे की अच्छा होता की इस फिल्म को एक और वर्जन देता. उनका इशारा "निजात" को उड़ीसा के जनजातियों की भाषा में भी पिरोने का था. कह रहे थे की स्क्रीनिंग के लिए अच्छा खासा निमंत्रण मिल जाता वहां से. लेकिन यह संभव नहीं था. कितना मुश्किल से वो इसे हिंदी में ही बना पायें हैं. हमारी बीच की इस discussion से मेरे अन्दर यह जिज्ञासा हुई की स्थानीय भाषाओं में बने फिल्मों का इतिहास क्या रहा है और इसका भविष्य क्या है. इसके बहुत रोचक तथ्य मिलें मुझे.
यहाँ लिखने के लिए मैं अपनी हीं स्थानीय भाषा की फिल्मों के इतिहास को खंगालता हूँ. मेरा जन्म स्थान (नालंदा, बिहार) की भाषा मगही है. बिहार के पटना, नालंदा, नवादा, और शेखपुरा जिलों के अलावा यह भाषा कहीं भी प्रचलन में नहीं है. लेकिन जानकर आश्चर्य हुआ की मगही में भी कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है और अभी भी कुछ मगहिया प्रेमी इस दिशा में काम कर रहे हैं. उन्ही लोंगो में से एक है पटना के कौशल किशोर (www.magahdesh.blogspot.com ) जिनकी भी इच्छा है मगहिया में एक फीचर फिल्म बनाने का. खैर, मगहिया फिल्म के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी फिल्म "भैया" का निर्माण. "भैया" का लेखन और निर्देशन फनी मजुमदार ने किया था. किसे पता होगा की मगही भाषा के इस फिल्म में तब की प्रसिद्व आइटम डांसर हेलेन ने आइटम डांस और मशहूर अदाकारा पद्मा खन्ना ने अभिनय किया था. "भैया" १९६५ में बनी थी और तब इसे नालंदा, पटना के आस-पास के इलाकों के खपरैल सिनेमाघरों में रिलीज़ किया गया था. इसका निर्माण नालंदा के हीं एक फिल्म संघ 'नालंदा चित्र प्रतिष्ठान' ने किया था. निर्देशक फनी मजुमदार के बारे में भी एक रोचक तथ्य यह है की वह भारत के अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने ९ भाषाओँ में फिल्में बनाई है.
"भैया" की कहानी और चित्रांकन आज की फूहड़पन से लबालब भोजपुरी फिल्मों की तरह नहीं था. फिल्म देखकर तब के फिल्म-निर्माण शैली की परपक्वता का अंदाजा होता है. तब स्थानीय मगहिया दर्शक फिल्में आइटम नम्बर के लटके-झटके देखने नहीं बल्कि घर-बार की कहानियां देखने जाते थे. कुछ वाक्यों में "भैया" के कहानी भी बताना चाहूँगा-
एक गरीब इंसान परमानन्द अपनी विधवा सौतेली माँ, सौतेला भाई मुरली और सौतेली बहन कमला के साथ रहता है. परमानन्द अपनी गाँव की हीं बिंदु से प्यार करता है और शादी करना चाहता है. मुरली जब बम्बई से पढाई करके लौटता है तब उसे भी बिंदु से प्यार हो जाता है. परमानन्द मुरली के खुशी के लिए उसकी शादी बिंदु से करवा देता है लेकिन मुरली शादी के बाद गाँव की एक दूसरी लड़की चन्द्रा पर डोरे डालने लगता है. परमानन्द अपनी प्यार बिंदु के खुशी के लिए मुरली को समझाता है लेकिन मुरली उल्टा परमानन्द से झगडा कर कोर्ट में अपने पिता की सारी सम्पति पर पूरा हक के लिए अर्जी दे देता है.
परमानन्द का अपने भाई के लिए प्यार की कुर्बानी, फिर अपने प्यार के खातिर अपने अधिकारों की कुर्बानी..... रिश्तों का ताना-बाना.. पूरी फिल्म को जबरदस्त परिपक्व बनाता है. यह कहानी उस फिल्म की है जो मगहिया फ़िल्मी इतिहास की सबसे पहली कड़ी है. और शायद आखिरी भी. क्यूंकि "भैया" के बाद मगही भाषा में एक पूरी फीचर फिल्म के निर्माण न के बराबर हुए.
फिल्म निर्माण में अब पैसावाद आ गया है. फिल्मों को तो अब वर्ल्ड-वाइड रिलीज़ किया जाता है तभी तो आज के लटके झटके वाले भोजपुरी फिल्मों को भी भारत के साथ साथ, अमेरिका, नीदरलैंड, साउथ अफ्रीका में भी रिलीज़ किया जाता है. एक स्थानीय भाषा में फिल्म बनाना तो अब बहुत बड़ा जोखिम है. यह बात सभी प्रकार के फिल्मकार समझते है. शशिकांत झा जैसे बहुत छोटे स्तर के फिल्मकार भी. वह भी जानते है की आर्ट फिल्मों का भी अब कैसे commercialise किया जाता है. स्थानीय भाषा में फिल्में बनाना तब एक जोखिम भरा काम नहीं होगा जब कला फिल्मों को सिर्फ 'कला' और 'प्रदर्शन' के लिए बनाया जायेगा और निश्चित हीं जिसका उद्देश्य पैसा बनाना नहीं होगा. और इसकी एक बड़ी जिम्मेदारी S.R.F.T.I और F.T.I.I जैसे संस्थानों की है जो अपने यहाँ हाँथ के उँगलियों की संख्या जीतनी (S.R.F.T.I -१० seats & F.T.I.I -१२ seats ) विद्यार्थियों को प्रवेश देते हैं.
खैर, झा सर कह रहे थे की अच्छा होता की इस फिल्म को एक और वर्जन देता. उनका इशारा "निजात" को उड़ीसा के जनजातियों की भाषा में भी पिरोने का था. कह रहे थे की स्क्रीनिंग के लिए अच्छा खासा निमंत्रण मिल जाता वहां से. लेकिन यह संभव नहीं था. कितना मुश्किल से वो इसे हिंदी में ही बना पायें हैं. हमारी बीच की इस discussion से मेरे अन्दर यह जिज्ञासा हुई की स्थानीय भाषाओं में बने फिल्मों का इतिहास क्या रहा है और इसका भविष्य क्या है. इसके बहुत रोचक तथ्य मिलें मुझे.
यहाँ लिखने के लिए मैं अपनी हीं स्थानीय भाषा की फिल्मों के इतिहास को खंगालता हूँ. मेरा जन्म स्थान (नालंदा, बिहार) की भाषा मगही है. बिहार के पटना, नालंदा, नवादा, और शेखपुरा जिलों के अलावा यह भाषा कहीं भी प्रचलन में नहीं है. लेकिन जानकर आश्चर्य हुआ की मगही में भी कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है और अभी भी कुछ मगहिया प्रेमी इस दिशा में काम कर रहे हैं. उन्ही लोंगो में से एक है पटना के कौशल किशोर (www.magahdesh.blogspot.com ) जिनकी भी इच्छा है मगहिया में एक फीचर फिल्म बनाने का. खैर, मगहिया फिल्म के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी फिल्म "भैया" का निर्माण. "भैया" का लेखन और निर्देशन फनी मजुमदार ने किया था. किसे पता होगा की मगही भाषा के इस फिल्म में तब की प्रसिद्व आइटम डांसर हेलेन ने आइटम डांस और मशहूर अदाकारा पद्मा खन्ना ने अभिनय किया था. "भैया" १९६५ में बनी थी और तब इसे नालंदा, पटना के आस-पास के इलाकों के खपरैल सिनेमाघरों में रिलीज़ किया गया था. इसका निर्माण नालंदा के हीं एक फिल्म संघ 'नालंदा चित्र प्रतिष्ठान' ने किया था. निर्देशक फनी मजुमदार के बारे में भी एक रोचक तथ्य यह है की वह भारत के अकेले ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने ९ भाषाओँ में फिल्में बनाई है.
"भैया" की कहानी और चित्रांकन आज की फूहड़पन से लबालब भोजपुरी फिल्मों की तरह नहीं था. फिल्म देखकर तब के फिल्म-निर्माण शैली की परपक्वता का अंदाजा होता है. तब स्थानीय मगहिया दर्शक फिल्में आइटम नम्बर के लटके-झटके देखने नहीं बल्कि घर-बार की कहानियां देखने जाते थे. कुछ वाक्यों में "भैया" के कहानी भी बताना चाहूँगा-
एक गरीब इंसान परमानन्द अपनी विधवा सौतेली माँ, सौतेला भाई मुरली और सौतेली बहन कमला के साथ रहता है. परमानन्द अपनी गाँव की हीं बिंदु से प्यार करता है और शादी करना चाहता है. मुरली जब बम्बई से पढाई करके लौटता है तब उसे भी बिंदु से प्यार हो जाता है. परमानन्द मुरली के खुशी के लिए उसकी शादी बिंदु से करवा देता है लेकिन मुरली शादी के बाद गाँव की एक दूसरी लड़की चन्द्रा पर डोरे डालने लगता है. परमानन्द अपनी प्यार बिंदु के खुशी के लिए मुरली को समझाता है लेकिन मुरली उल्टा परमानन्द से झगडा कर कोर्ट में अपने पिता की सारी सम्पति पर पूरा हक के लिए अर्जी दे देता है.
परमानन्द का अपने भाई के लिए प्यार की कुर्बानी, फिर अपने प्यार के खातिर अपने अधिकारों की कुर्बानी..... रिश्तों का ताना-बाना.. पूरी फिल्म को जबरदस्त परिपक्व बनाता है. यह कहानी उस फिल्म की है जो मगहिया फ़िल्मी इतिहास की सबसे पहली कड़ी है. और शायद आखिरी भी. क्यूंकि "भैया" के बाद मगही भाषा में एक पूरी फीचर फिल्म के निर्माण न के बराबर हुए.
फिल्म निर्माण में अब पैसावाद आ गया है. फिल्मों को तो अब वर्ल्ड-वाइड रिलीज़ किया जाता है तभी तो आज के लटके झटके वाले भोजपुरी फिल्मों को भी भारत के साथ साथ, अमेरिका, नीदरलैंड, साउथ अफ्रीका में भी रिलीज़ किया जाता है. एक स्थानीय भाषा में फिल्म बनाना तो अब बहुत बड़ा जोखिम है. यह बात सभी प्रकार के फिल्मकार समझते है. शशिकांत झा जैसे बहुत छोटे स्तर के फिल्मकार भी. वह भी जानते है की आर्ट फिल्मों का भी अब कैसे commercialise किया जाता है. स्थानीय भाषा में फिल्में बनाना तब एक जोखिम भरा काम नहीं होगा जब कला फिल्मों को सिर्फ 'कला' और 'प्रदर्शन' के लिए बनाया जायेगा और निश्चित हीं जिसका उद्देश्य पैसा बनाना नहीं होगा. और इसकी एक बड़ी जिम्मेदारी S.R.F.T.I और F.T.I.I जैसे संस्थानों की है जो अपने यहाँ हाँथ के उँगलियों की संख्या जीतनी (S.R.F.T.I -१० seats & F.T.I.I -१२ seats ) विद्यार्थियों को प्रवेश देते हैं.
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