गुरुवार, 7 जुलाई 2011

अन्ना, बाबा गांधीवाद और जनता बहसबाज़

किसी ने मोबाइल पर मेसेज किया. "उस औरत का क्या हुआ जिसके सलवार शूट पहनकर बाबा रामदेव रामलीला मैदान से निकले?". बाबा रामदेव वाले प्रकरण पर ये तो था उन लोंगो की प्रतिक्रिया जो देश में चल रहे किसी भी खेल में अपनी मतलब के 'फन' ढूंढ़ लेते हैं. एक और वाकया.. सेक्टर -३७ से मीठापुर जाने वाली वैन में बैठा था. रिटाएर के कगार पे खड़े ४-५ अंकल जी टाइप के  लोग आपस में बँट गए और लगे मंथन करने की कौन सही है, बाबा रामदेव या फिर सरकार.
चीजों पर प्रतिक्रिया देना अच्छा है लेकिन हम अति-प्रतिक्रियावाद क्यूँ बनने लगते हैं? भारतीय विद्या भवन से पत्रिकारिता की विद्यार्थी संचिता उपाध्याय अपने फेसबुक नोट में लिखती हैं - "क्या आप इस ढोंग जिसे कथित 'सत्याग्रह' कहा जा है का समर्थन करते हैं. क्या आप देश ऐसे किसी बाबा के हाथ में जाने देंगे जो ....." बेगरेह..बेगरेह. कांग्रेस ने बाबा में कमियां निकाली, कुछ आरोप -सरोप लगाये, मीडिया ने सुर बदला आम आदमी के भी सुर बदलने लगे. इन सब से मुख्य मुद्दा का वहीँ धाक के तीन पात होकर रह गया. कहा जा रहा है सत्याग्रह करने वाले ऐसे औरतों के लिबास में मुंह छुपा कर थोड़े भागते हैं, सत्याग्रह तो गाँधी जी ने किया था. बाबा ने तो सत्याग्रह का अपमान किया.
मेरे जैसे टेक्निकल को 'सत्याग्रह' शब्द का मतलब समझ में नहीं आता. बिना भूमिका बांधे सीधे-सीधे वो लिखता हूँ, जो मैंने गांधीजी के द्वारा लिखे हीं 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में पढ़ा. ये वह घटना है जब गाँधी जी को भी छुप कर भागना पड़ा था.

गांधी जी अपने परिवार के साथ भारत से नेटाल (साउथ अफ्रीका का एक राज्य) के लिए स्टीमर से चल चुके थे। तब डरबन में एक अलग किस्म की लड़ाई चल रही थी। वहां के लोग गांधीजी से खफा थे. उन पर आरोप था की उन्होंने भारत में नेटाल वासियों गोरों की निंदा की थी और दूसरी यह की वह नेटाल को भारतीयों से भर देना चाहते थे.
गांधी जी निर्दोष थे। उन्होंने भारत में कोई ऐसी नई बात नहीं कही थी जो उन्होंने इसके पहले नेटाल में न कही हो। और जो कुछ भी उन्होंने कहा था पक्के सबूत के बल पर कहा था।
गांधी जी से जहाज पर कप्तान ने पूछा, “गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं, उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुंचायें, तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस प्रकार अमल करेंगे?” गांधी जी ने जवाब दिया, “मुझे आशा है कि उन्हें माफ़ कर देने की और उन पर मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा।” कई दिन तक बन्दरगाह पर जहाज लगा रहा, उन्हें जहाज से उतरने की इज़ाज़त नहीं मिली। धमकी दी गई कि जान खतरे में है। आखिर 13 जनवरी 1897 को उतरने का आदेश मिला। गोरे उत्तेजित थे। गांधी जी के प्राण संकट में थे। पोर्ट सुपरिण्टेण्डेण्ट टेटम के साथ गांधी जी को चलने को कहा गया। अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि लाटन ने कप्तान से कहा कि स्टीमर एजेण्ट के वकील के नाते वे गांधी जी को अपने साथ ले जाएंगे। लाटन ने गांधी जी को कहा कि बा और बच्चे गाड़ी में रुस्तम सेठ के घर जायें और वे दोनों पैदल चलें। वे नहीं चाहते थे कि अंधेरा हो जाने पर शहर में दाखिल हुआ जाए। चोरी-छुपे जाना कोई अच्छा काम नहीं है। गांधी जी इस सलाह पर सहमत हुए। बा और बच्चे गाड़ी में बैठकर रुस्तमजी के घर सही सलामत पहुंच गए। गांधी जी लाटन के साथ मील भर की दूरी पर स्थित रुस्तम जी के घर के लिए पैदल चले। कुछ ही दूर चलने पर कुछ लड़कों ने उन्हें पहचान लिया। वे चिल्लाने लगे, “गांधी, गांधी”। काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए। चिल्लाने का शोर बढ़ने लगा। भीड़ को बढ़ते देख लाटन ने रिक्शा मंगवाया। न चाहते हुए भी गांधी जी को उसमें बैठना पड़ा। पर लड़कों ने रिक्शेवाले को धमकाया और वह उन्हें छोड़कर भाग खड़ा हुआ। वे आगे बढ़े। भीड़ बढ़ती ही गई। भीड़ ने लाटन को अलग कर दिया। फिर गांधी जी पर पत्थरों और अंडों की वर्षा शुरु हो गई। किसी ने उनकी पगड़ी उछाल कर फेंक दिया। फिर लातों से उनकी पिटाई की गई। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। गांधी जी को गश आ गया। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की रेलिंग को थामा। फिर भी उनकी पीटाई-कुटाई चलती रही। तमाचे भी पड़ने लगे। इतने में एक पुलिस अधीक्षक की पत्नी, श्रीमती एलेक्जेंडर, जो गांधी जी को पहचानती थी, वहां से गुज़र रही थी। वह बहादुर महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली, जिससे पत्थरों और अंडों की बौछाड़ से गांधी जी बच सकें। इससे भीड़ कुछ नरम हुई। अब स्थिति यह थी की यदि बापू पर प्रहार करने हों तो मिसेज एलेक्ज़ेंडर को बचाकर ही किये जा सकते थे। थाने में खबर पहुंची।
पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्ज़ेण्डर ने एक टुकड़ी गांधी जी को घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुंची। रुस्तमजी के घर तक जाने के रास्ते के बीच में थाना पड़ता था। एलेक्ज़ेण्डर ने थाने में ही आश्रय लेने की सलाह दी। गांधी जी ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, “जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त होकर चले जाएंगे। मुझे उनकी न्याय बुद्धि पर विश्वास है।” पुलिस दस्ते ने उन्हें सही सलामत रुस्तमजी के घर तक छोड़ दिया। गांधी जी की पीठ पर मार पड़ी थी। एक जगह से ख़ून निकल आया था। चिकित्सक को बुलाकर गांधीजी की चोटों का इलाज करवाया गया। भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। रात घिर आई थी। वे गांधीजी की मांग कर रहे थे। “गांधी को हमें सौंप दो। हम उसे जिन्दा जला देंगे”। भीड़ चीख रही थी। “इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे”। परिस्थिति का ख्याल करके एलेक्ज़ेंडर वहां पहुंच गये थे। भीड़ को वे धमकी से नहीं, बल्कि उनका मन बहला कर वश में कर रहे थे। पर स्थिति नियंत्रित नहीं हो रही थी। भीड़ धमकी दे रही थी कि यदि गांधी जी को उन्हें नहीं दे दिया गया तो घर में आग लगा देंगे। एलेक्ज़ेंडर ने गांधी जी को संदेश भिजवाया, “यदि आप अपने मित्र का मकान, अपना परिवार और माल-असबाब बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिए।”
 इस पुरे प्रसंग पर गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में टिपण्णी के रूप में जो लिखा मैं यहाँ हुबहू लिखता हूँ - "कौन कह सकता है कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार जी प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता है कि संकट के प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ है। उनका उपयोग यही है कि जो हो चुका है, उसे समझ लें और उससे जितना सीखने को मिले, सीख लें। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती है, वह अधूरी और अनुमान-मात्र होती है।” पता नहीं क्यूँ लोग इसे आज के सन्दर्भ में नहीं देखते.

बात सिर्फ इतनी सी है की हम तथ्यों को पीछे छोड़कर बहसबाजी में लग जाते हैं. "बाबा ने सत्याग्रह का अपमान कर दिया", "योगी को तो सिर्फ योग सिखानी चाहिए, राजनीति नहीं करनी चाहिए" बेगरेह. बेगरेह! . फेसबुकबाजों ने इसका बाज़ार गर्म कर रखा है, ब्लॉग पर कमेन्टबाज़ भी इसे घिसेड़ रहे हैं. मेन मुद्दा कहाँ है? अगर बाबा एक योगी होकर काले धन के मुद्दे को उठाता है तो इसमें दिक्कत क्या है? रात को १ बजे अपनी हड्डियाँ तुडवाने के बजाये महिला भेष में भाग गया तो देशद्रोही थोड़े हो गया.
अब 'द ग्रेट कांग्रेस' पर आते हैं. गांधीजी जब देश से बाहर जा रहे धन को रोकने के लिए लड़ाई लड़ते हैं, स्वदेशी अपनाते हैं, तब कांग्रेस उन्हें अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाती है. लड़ाई लड़ती है. लेकिन अब जब एक बाबा विदेशों में जमा भारतीयों का काला धन वापिस लाने का मांग करता है तब यही कांग्रेस उस पर आरोप लगाती है. गांधीजी ने ३६वें साल में ब्रह्मचर्य का जीवन अपना लिया था, तब तो कांग्रेस ने उनसे नहीं कहा था की आप ब्रह्मचर्य होकर राजनीति क्यूँ करते है? कांग्रेस ने तब के अपने सभी आंदोलनों में गांधीजी को अपना हिस्सा बनाया था. अब कांग्रेसी एक आन्दोलनकारी योगी को कहता है-यू शुल्ड कन्सेन्ट्रेट ऑन योर योगा एण्ड साधुगिरी, नहीं तो अगर हमें राजनीति सिखाने आए तो तुम्हें तुम्हारी सारी गांधीगिरी भुला देंगे।
इस सब के बिच मीडिया भेड़ियाधसान ख़बरबाज़ी कर रहा है, फेसबुक वाले मस्तीबाज़ी कर रहे हैं, sms वाले फन्नी मेसेज बनकर लोंगो को हंसा रहे हैं. लिटरेट और कॉरपोरेट वाले लोग मंहगे कॉफ़ी शॉप में कॉफ़ी के चुस्कियां लेते हुए 'बाबा-अन्ना वनाम सरकार' बतिया कर टाइम पास कर लेते हैं. हम लम्बी बहसबाजी और कमेन्टबाज़ी करके पढ़े-लिखे होने का सबूत दे देते हैं, बाकि होता वही है- धाक के तीन पात. यही हमारी नियति है.

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