सोमवार, 14 जून 2010

सत्येन्द्र दादा जी के याद में...

वह पटना के नाला रोड पर स्थित अपनी दवाई के दुकान चलाते थे. कब से, यह मुझे याद नहीं. शायद मेरे पैदा होने के पहले से ही. उनकी दवाई कैसी क्वालिटी की होती थी यह तो वहाँ के मरीज ही जाने लेकिन वह खुद सभी मर्ज के दवा थे. किसी निराश इंसान से १० मिनट बैठ कर बात कर लें तो उसकी सारी परेशानी ख़त्म. तो थे न वह एक दवा? एक प्रकृति निर्मित दवा.
                     नाम- सत्येन्द्र गिरी, पिता-श्री नवलकिशोर गिरी, निवासी- पटना सिटी और उम्र-४८ साल. मेरे दादाजी के चचरे भाई होने के कारण मेरे भी दादाजी हुए. कुछ दिन पहले दिल के दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी. लोग कहते है सत्येन्द्र बाबु नहीं  रहे. मुझे ऐसा नहीं लगता. मै उन्हें अपने आस-पास महसूस करता हूँ. इसलिए नहीं की मुझे उनसे अपने दादाजी से ज्यादा लगाव था बल्कि इसलिए की उनकी सिखाये बहुत सी चीजें अभी भी मेरे साथ है. बहुत सी यादें जुड़ी है , मैं कुछेक याद करना चाहूँगा.

मै पांचवी क्लास में पढता था. स्कूल के लिए निकलते समय अपने बस्ता के साथ -साथ साइकिल का टायर भी लेकर चलता. मतलब अपनी गाड़ी के साथ. बस्ता कही झाड़ी में छुपाकर पुरे दिन-दोपहर लिख (खेतों में ट्रेक्टर चलने के बाद उसके चक्के से जो सड़क बना जाता है उसे हमारे यहाँ 'लिख' कहते है ) पर उस टायर  को डंडे से भगा-भगाकर चलाता. शाम को ४ बजे वापिस बस्ता लेकर घर. एक दिन मम्मी को पता चल गया तो मुझे मार पड़ी. सत्येन्द्र दादा पटना से आये हुए थे. १०-१५ दिन पर खेती-बारी का हाल-चाल जानने आ जाया करते थे. मै मार खाकर आंगन में मिट्टी के चूल्हे पर बैठा था.  दादाजी सारा हाल जानने के बाद हंसते हुए मुझे उठाकर बाहर ले गए.  इस बार वो अपनी नयी बुल्लेट मोटर साइकिल से आये थे. उन्होंने मुझे पुरे लिखों पर सैर करवाया. "यह देखो , यह है असली गाड़ी. जो तुमको बिठाकर चले. लेकिन तुम जो चलाते हो वो तो नकली है. उसे चलाने के लिए तुम्हे दौड़ना पड़ता है. अगर तुम रोज स्कूल जाओगे तो बड़े होकर नौकरी करोगे फिर तुम भी ऐसा ही बुल्लेट गाड़ी खरीद लेना." उन्होंने कहा. उस दिन से मेरे दिमाग में यह बात घर कर गया की मै रोज स्कूल जाऊंगा तो मेरे पास भी ऐसा एक फटफटिया मोटर साइकिल होगा.
  हम दोनों में एक बात सामान है. उन्होंने ४८ साल के अपनी जिंदगी में एक बीड़ा पान भी मुंह में नहीं डाला. अब तक तो मैंने भी नहीं, शायद उन्ही का असर है. मेरे घराने में रात के खाना के बाद भांग पीना तो जैसे रिवाज है. एक दिन खलिहान में उनके साथ लेटे लेटे मैंने पूछा,"आईं दादा तोरा भंगवा अच्छा न लग हो? (दादाजी आपको भांग अच्छा नहीं लगता क्या?) उन्होंने समझाया- अरे उससे पेट थोड़े भरता है. वो तो एक लत है, बहुत गन्दी लत. जब तुमको किसी चीज की लत लग जाएगी न तो फिर तुम उस लत के गुलाम हो जाओगे. फिर इंसान वही करता है जो उसे नहीं करना चाहिए.
              तब बात कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया था, लेकिन आज जब खुद को देखता हूँ बिलकुल नशामुक्त, पुरे घराना में सबसे अलग.. तब मुझे लगता है की मै उस दिन उनसे बहुत कुछ समझा था. मेरे गाँव में एक कहावत है "जतन के मधु में चुट्टी (चींटी)  ज्यादा लगता है". यह कहावत सत्येद्र दादाजी के ऊपर चरितार्थ हो गया. बहुत जतन से वे अपनी जिंदगी जी रहे थे लेकिन भगवान की उनपर टेढ़ी नजर थी. शायद हमसे ज्यादा उनकी जरुरत ऊपर वाले को था.
    दादाजी आप हमेशा मेरे साथ रहना..  .. मै आपके सिखाये रास्ते पर चलकर एक बेहतर इंसान बनना चाहता हूँ . इसके लिए मुझे आपकी जरुरत पड़ती रहेगी.
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